Saturday, November 14, 2009
"सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा, हम बुलबुले हैं इसके, ये गुलसितां हमारा"
Thursday, October 29, 2009
समाज सुधार (छत्तीसगढ की मासिक पत्रिका उदंती.com माह अगस्त 2009 में प्रकाशित)
शहर का जाना माना रईस था, जो कभी कबाड़ी हुआ करता था। प्रोपर्टी खरीद फरोख्त ने उसे शायद यह ऊंचाई दिखाई थी। शहर के हर कोने में बनी जाने कितनी बिल्डिंग का मालिक। समाज सेवक के रूप में पूजा जाने वाला बशेशर प्रसाद पैसा दानखाते में पानी की तरह बहाता। गरीब अविवाहित लड़कियों के धन देकर विवाह कराता। ताश की महफिलों में उठना बैठना उसकी दिनचर्या में शामिल था। महफिल से तभी उठता जब गडि्डयों का भार उसके हाथों में होता। एक हाथ से पैसा लेता दूसरे हाथ से गरीब लड़कियों के परिवारों पर खर्च करता। उसका रवैया सामान्य जन की समझ से बाहर था।
एक दिन श्यामा की मां को उसके बारे में पता चला और वो उससे मिलने उसके घर गई। बशेशर प्रसाद उस समय अपने बैडरूम में था, उसे भी वहीं बुला लिया। श्यामा की मां की नजर दो नवयुवतियों पर पड़ी जो उसके बैड के पास बैठी थीं ये देख उसकी उदारता से वह गद्गगद् हो उठीं कि गरीबों का कितना ख्याल रखता है बशेशर प्रसाद। अपने आराम के समय में भी दुखियों का दुख दर्द सुन रहा है। खैर! श्यामा की मां बोलीं-‘‘नमस्ते साहब! मैं एक गरीब दुखिया हूं मेरी जवान व खूबसूरत बेटी हाथ पीले करने लायक हो गई है आप थोड़ी सहायता करते तो हम पर उपकार होता।’’ बशेशर-‘‘उपकार कैसा? यह तो मेरा धर्म है कल से उसे यहां दो घण्टे के लिए भेज देना। मैं देखूंगा जो बन पड़ेगा करूंगा।’’ “यामा की मां घर लौट आयी घर आकर खुशी खुशी श्यामा को अगले दिन बशेशर प्रसाद के घर खुद छोड़ने गई। बशेशर प्रसाद के पी.ए. ने उसका नाम नोटबुक में लिखा और उसे बशेशर के बैडरूम में ले गया। मां देखती रह गई कमरे का दरवाजा बन्द हो गया। बशेशर के समाजसुधार कार्य में एक और पुण्य कार्य जुड़ गया, तो क्या हुआ? शबरी भी तो झूठे बेर राम जी को खिलाती थी ।
Friday, October 16, 2009
दीपावली पर लक्ष्मी व सरस्वती का संग-संग पूजन का महत्व
Sunday, September 13, 2009
यज्ञों से होती है वर्षा (जयपुर की ज्योतिष सागर पत्रिका में प्राकाशित)
वर्तमान में हमें अकाल जैसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ रहा है । आज हम वर्षा ऋतु के पानी पर ही निर्भर हैं, जबकि पूर्वोत्तर काल में ऋषि मुनियों द्धारा यज्ञादि शक्तियों का सहारा लेकर भी वर्षा करायी जाती थी । प्राचीन समय में प्रत्येक धर में नियमानुसार यज्ञों का प्रचलन था । भौतिकता के इस युग में विशिष्ट आयोजनों पर ही यज्ञों का प्रचलन सीमित रह गया है । हाल ही में बोरखेड़ा में संत कौशिक महाराज द्धारा यज्ञों का आयोजन कर वर्षा कराये जाने की महत्वता पर बल दिया । उन्होने यज्ञ वेदी की अग्नि को देवताओं का मुख व उसमें दी गई । आहुति को प्रत्यक्ष रुप से उनका भोजन माना , जो वायु में मिलकर प्राणी मात्र तक पहुंचता है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यज्ञ वात विज्ञान से जुड़ा है । वेदों ने भी इसकी पुष्टि की है । ”शनो वात: पवतां “शं नस्तपतु सूर्य: ”शं न: कनिक्रदद्धेव पर्जन्यो अभिवर्षतु ।। वेद के उपरोक्त मंत्र में अच्छी वर्षा के लिये कल्याणकारी वायु के चलने का उल्लेख है। किस प्रकार की वायु से मेघों की उत्पत्ति होगी, किस प्रकार की वायु से मेघों का विनाश होगा,किस प्रकार की वायु से मेघ बरसेगें, यह वर्षा संबंधी वात ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। वेद ने वात ( वात्र वायु + त त्र ताप ) त्र ( वायु+ताप ) त्र तापित वायु को मेघ का मूल उद्गम बताते हुए कहा है-‘वाताय स्वाहा, घूमाय स्वाहा,अभ्राय स्वाहा,मेघाय स्वाहा’ अब प्र”न यह उठता है कि मेघ कैसे बनते हैं। भौतिक अग्नि में कि्रया करने से,उसमें द्रव्यों की आहूति देने से अथवा सूर्य के ताप से ,तपित वायु घूम से ( युक्त ‘जलीय वाष्प को धारण करने वाली ) होकर अभ्र स्थिति को प्राप्त होती है और वही मेघ बनती है। ऐसी स्थिति में वात का ज्ञान इस का्र्य लिये आवश्यक है। पूर्वो भ्रजननो वायुरितरो भ्र विनाशन:। उत्तरो वृष्टिजनको वर्षत्येव च दक्षणि: ।। पूर्व की हवा बादल और वर्षा लाती है। पशिचम की हवा मेघ एवं वृष्टि का नाशक हैं। उत्तर की हवा वृष्टि को उत्पन्न करके बरसाती ही है, और दक्षणि की हवा केवल हवा ही चलती है परन्तु वृष्टि नहीं कराती। अत: पूर्व और उत्तर की वायु ही वृष्टि कार्य के लिये शं वात:’-सुखकारी वात है। यह शं वात:भी भावक ,स्थापक एवं ज्ञापक भेद से तीन प्रकार की होती है। भावक से बादल उत्पन्न होते हैं। स्थापक से बादल स्थित होते हैं। और ज्ञापक वायु से आने वाली वृष्टि का पहले से ही ज्ञान होता है। हर वायु सुखकारी नहीं होती, जैसे दक्षणि,नैऋत्य एंव वायव्य कोण की वायु मेघों का नाश करने वाली होने से श वात:’ नहीं है। बादलों में शोष वायु के उत्पन्न होने पर बादलों की स्निग्घता नष्ट हो जाती है। वे फटे-फटे रूक्ष से,बिखरे से हो जाते हैं और वर्षा नहीं होती। यदि अन्य प्रबल कारणों से वर्षा का योग हो भी जाये तो वायु की प्रचण्डता से थोड़ी ही वर्षा होती है या वह वायु जल शोषण करने से अल्पवृष्टि की हो जाती है। इसी प्रकार -शं नस्तपतु सूर्य:-के अनुसार जब सूर्य की तपन विशेष होती है तो वर्षा शीघ्र ही हो जाती है। वेद में - स्वाहा सूर्स्यय रश्मये वृष्टि वनये - अर्थात सूर्य की वे रश्मियां जो वृष्टि लाती हैं,उनके लिये कि्रया हो। इससे स्पष्ट है कि जब सूर्य की रश्मियों का वृष्टि कराने में ताप की विशेष रूप से क्रियाशीलता होती है तो वृष्टि दूर-दूर तक होती है। इसलिए वर्षा ऋतु में जिस दिन सूर्य अत्यन्त प्रखर और असहाय ताप देने वाला हो और घृत के वर्ण के सदृश्य प्रभा वाला हो तो उस दिन वर्षा अवश्य होती है। इसी प्रकार -शं न: कनिक्रदद्धेव पर्न्यज:’ जब मेघ अपनी शुभ लक्षणयुक्त गर्जना करते हैं तब भी दूर-दूर तक वर्षा होती है। यह गर्ज़ना विद्युत स्फुरण से होती है अत: वर्षा के लिये विद्युत ज्ञान की आवश्यकता है। लोगों का मानना है कि वर्षा कराना मानवकृत प्रयत्नों से संभव नहीं है, यह तो प्रकृति के ही आश्रति है लेकिन ऐसा नहीं है, थोड़ा सोचने पर कि कैसे प्राकृतिक कारणों से नदी अपना मार्ग बना लेती है यदि हम भी नहरें आदि अपनी बुिद्ध एंव पुरूषार्थ के बल से बनायें तो नदियों का जल उन मार्गों से भी बहने लगेगा। इसी प्रकार वर्षा एक विज्ञान है जिसे समझ कर प्रकृति को अनुकूल बनाकर वर्षा भी कराई जा सकती है। जिससे देश की प्रजा सुखी एंव समृद्ध हो सकती है। प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिये यज्ञ का सहारा लेना पड़ता है,जो सतयुग से चला आ रहा है । भगवान राम भी यज्ञादि द्धारा शक्ति अर्जन करते थे। इसके लिये इस मंत्र का प्रयोग किया जाता है- ‘भूमि पर्जन्या जिवन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नम:’। इसका अर्थ है भूमि को वर्षा के द्धारा मेघ तृप्त करते हैं और द्युलोक को तृप्त किया जाता है, और वर्षा सम्पन्न करायी जाती है। कहते हैं मेघ यानि बादल वर्षा लाते हैं लेकिन ये भी तीन प्रकार के होते हैं- अग्निज,अनि्रज एंव दिव्य मेघ । मेघ से वर्षा पृथ्वी पर आती है और अग्नि के द्धारा पृथ्वी का जल ताप से वाष्पमय होकर, गर्म वायु के साहचर्य से और वहां के ताप से अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है। पृथ्वी पर से हुइZ इस कि्रया से उत्पन्न मेघ अग्निज है। आकाश,नक्षत्र और ग्रहों के योग से उत्पन्न होने वाले मेघ दिव्य हैं। तीनों प्रकार से उत्पन्न मेघों का स्थान अन्तरिक्ष ही है अत: एक प्रकार की मेघों की वर्षा से दूसरे प्रकार की मेघों में भी वर्षा कि्रया आरम्भ हो जाती है । जिसे बच्चों को सिखाते हैं, दो बादलों के टकराने से वर्षा होती है । अब यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी स्थिती आ जाये कि पूवोZक्त तीनों प्रकार के मेघों का निमाZण यथोचित न हुआ हो या अनेक प्रकार के दोषों के कारण अवर्षा ( अकाल ) की स्थिति आ जाये तो यज्ञ के द्धारा मेघों का निर्माण करके इसके साहचर्य से उन मेघों को भी बरसाया जा सकता है । यज्ञ द्धारा उत्पन्न ये मेघ पर्जन्य भी कहलाते हैं । हमारे प्राचीन ऋषि मुनि यज्ञ द्धारा ही मेघों को उत्पन्न करते थे ।वैदिक यज्ञ विज्ञान की क्रियाओं के आधार पर मेघों एंव वर्षा पर नियन्त्रण सरलता से स्थापित किया जा सकता है । वर्षा का संबंध केवल वर्षा के ही बादलों एंव मानसून पर आधारित नहीं है बल्कि शेष वर्ष में जो स्थिति अंतरिक्ष, वायु, विद्युत, नक्षत्र, चंद्र,सूर्य एंव बादलों की होती है ,उसपर भी प्रमुख रूप से आधारित है ।
Thursday, August 6, 2009
भारतीय नारी (राजस्थान साहित्य अकादमी की मधुमती पत्रिका मई 2009 में प्रकाशित)
‘‘बीवीजी! कुछ सब्ज़ी लेंगीं ?’’
मालती-‘‘नहीं! अभी नहीं चाहिए।’’
सब्ज़ीवाली-‘‘कुछ तो ले लो, हम दो कोस चलकर यहां आतीं हैं सब्ज़ी बेचने के वास्ते। अच्छा न लेयो तो पानी ही पिलाय देओ।’’
मालती पानी देते हुए-‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
सब्ज़ीवाली-‘‘दुलारी!’’
अब तो रोज़ का सिलसिला हो गया, दुलारी थकी मांदी आती और अपना स्टापेज़ समझ कुछ देर विश्राम करती। इस दौरान अपने छोटे बड़े किस्से सुनाती। अक्सर कभी उसकी आंख सूजी होती, तो कहीं नील पड़ी होती। कभी कभी तो उससे चला भी नहीं जाता इतनी चोट लग जाती। पूछने पर कहती उसका पति शराब पीकर उससे दिनभर की कमाई छीन लेता है। कुछ घर खर्च के लिए रख लेती और नहीं देती, तो मारता है। एक दिन दुलारी के आने का समय गुज़र गया और वह नहीं आयी अभी यह सोच ही रही थी कि मोड़ पर कुछ शोर सुना। शायद कोई औरत बेहोश हो गई थी। बाहर जाकर देखा तो दुलारी ही थी। खैर! उसे घर लायी और पानी पीने को दिया तो कहने लगी-‘‘नाहीं बीवीजी! आज हमार करवा चौथ कोउ व्रत हैगा, हमने पानी की एकहुं बूंद सुब्बे से नाहीं लेईं। तबहीं तो हम बेहोस हो गईं।’’
मालती ने कहा-‘‘तू तो पेट से है न ? फिर इतना सख्त व्रत ?’’
दुलारी-‘‘का करें आखिर भरतार के लिए सबहीं करना पड़ता है।’’
Monday, July 20, 2009
अपने -पराये
उसकी बात सुन साधु बोला -‘पुत्र! अपने तो स्वार्थ के होते हैं , और पराये निःस्वार्थ के जिदंगी का यह सच कितना कड़वा था मगर एकदम सच ।
Monday, June 29, 2009
पानी और बुलबुला
बुलबुले ने उत्तर दिया - ‘ अरे! हम हमारे लिये थोड़े ही जीते हैं,हम तो दूसरों की आंखें खोलने के लिये जीते हैंकि तुम भी हम जैसे ही हो । तुम्हारा जीवन भी क्षणिक है ।’
पानी ने फ़िर पूछा - ‘ तो क्या तुम्हारी बात सुनी है किसी ने आज तक ?’
बुलबुला - ‘भले ही न सुने कोई मग़र हमें तो अपने छोटे से जीवन को सोद्धेश्य बनाना ही है ।’
जब यह बात एक बुलबुला सिखा रहा है तो हम क्यों न सीखें अपने जीवन को उद्वेश्यपूर्ण बनाना
Wednesday, June 3, 2009
शुभाशुभ की कसौटी पर छींक (जयपुर की पत्रिका ज्योतिष सागर दिसम्बर 2002 में प्रकाशित लेख )
दीख निषादनाथ भल टोलू । कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ।।
एतना कहत छींक भइ बांए । कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
अर्थात् भरत के आगमन की बात सुनकर निशादराज ने वीरों का बढ़िया दल देख कर कहा कि जुझाऊ ढोल बजाओ ।इतना कहते ही बाईं ओर छींक हुई ।शगुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर है (जीत होगी)। बूढ़े व्यक्ति ने कहा भरत से मिल लीजिये, उनसे लड़ाई नहीं होगी क्योंकि इस समय भरत राम जी को मनाने जा रहे हैं ।शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है, यह सुनकर निशादराज गोह ने कहा बूढ़ा ठीक कह रहा है बिना विचारे कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं । अतः ये संदर्भ बताता है कि रामचन्द्र जी के ज़माने से छींक पर शगुन-अपशगुन के विचार चले आ रहे हैं ।जिन्होनें कई बार अच्छा परिणाम दिया तो कई बार शत्रुता या युद्ध की घोषणा करवायी ।
मगर आज इस बात को तार्किक दृष्टि से देखा व जाना जाता है । उसका लाज़िक समझने के उपरांत ही हम इसे निर्मूल सिद्ध कर सकते हैं ।ऐसी ही एक मान्यता छींक के प्रति बनी हुई है ।
छींक का आना यूं तो शारीरिक प्रतिक्रिया है , परन्तु लोगों ने इसके विषय में अलग - अलग धारणाएं बना रखी हैं । छींक का विभेदन किया जा चुका है ।शुभ व अशुभ छींक कह कर छींक को परिस्थिति के परिणाम में विभाजित कर दिया है । बनते काम की छींक शुभ होती है , और अगर काम बिगड़ गया तो अशुभ ।
छींक की प्रचलित धारणाएं इस प्रकार हैं -जैसे
शुभ व मंगलकारी छींक के मान्य विचार -
1. चलते समय अपनी पीठ के पीछे अथवा बाईं ओर को छींक हो तो वह शुभ फल देती है ।
2. चलते समय ऊंचाई पर छींक हो तो वह शुभ फलदायक होती है ।
3. यदि किसी व्यक्ति को एक साथ दो छींकें हों तो वह शुभ फलदायक होती है ।
4. आसन , शयन , शौच , दान , भोजन , औषधि-सेवन , विद्यारम्भ , बीज बोने का समय , युद्ध अथवा विवाह के लिये जाते समय छींकना शुभ फलदायक होता है ।
अशुभ व अमंगलकारी छींक के मान्य विचार -
1. चलते समय यदि सामने की ओर कोई छींकें तो झगड़ा होता है ।
2. चलते समय दाईं ओर छींक हो तो धन की हानि होती है ।
3. कन्या , विधवा , वेश्या , रजस्वला , मालिन , धोबिन तथा हरिजन स्त्री की छींक अशुभ फल देने वाली होती है । इनके छींकने पर यात्रा स्थगित कर देनी चाहिये तथा कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिये ।
काम का बनना या बिगड़ना योग , संजोग व समय तय करता है । सफलता या असफलता की कुंजी समय के हाथ में और आपके अपने द्वारा किए कर्मों के फल का प्रतिरूप है । सुख - दुख की यह धूप - छांव हर मनुष्य को झेलनी पड़ती है , फिर इनके बीच में यह छींक कहां से आ गई ?
कहिये छींक पर भी किसी का बस हो सकता है ? आजकल बढ़ते प्रदूषण में छींक आना मामूली बात है । असाधारण परिस्थिति व अशुद्धियों का शरीर में प्रवेश छींक को जन्म देते हैं ।घर और बाहर के अलग-अलग वातावरणों में छींक के कारण भी बदल जाते हैं ।
घर से संबंधित कारण
1. रसोईघर से आती हुई धस या उड़ते छौंक का नाक में प्रवेश्। करना ।
2. ग़र्म सर्द़ तापक्रम का अन्तर होना ।( जैसे एयर कंडीशंड कमरों या शो रूम आदि से एकदम बाहर आना ।)
3. सूर्य की ओर सीधे देखने से उसकी तेज़ रौशनी व पराबैंगनी किरणों का नाक व आंखों में प्रवेश ।
4. धूल के कणों का साफ़ - सफ़ाई के समय नाक में प्रवेश।
बाहृय कारण
1.वायु प्रदूषण (वाहनों एंव कारखानों की बढ़ती संख्या से होने वाले प्रदूषण का नाक में प्रवेश करना) ।
2. धूल के कण , तीक्ष्ण हवा, धुएं ,एंव अशुद्ध वायु का नाक में प्रवेश ।
जिस तरह से गाड़ी के इंजन में कचरा जाने से रोकने के लिये तेल छननी का इस्तेमाल किया जाता है , उसी प्रकार ईश्वर द्वारा निर्मित मानव रूपी गाड़ी के इंजन में अवांछनीय व अशुद्ध चीज़ो के प्रवेश को रोकने के लिय नाक का छननी के रूप में प्रयोग किया गया है । जो अवांछनीय व अशुद्ध चीज़ों को नाक में प्रवेश करते ही स्वचालित शारीरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया, छींक के माध्यम के द्वारा उन्हें बाहर निकाल देती है । जिसे भगवान ने शरीर की सुरक्षा की दृष्टि से समय-समय पर गाड़ी के हार्न की तरह इस्तेमाल किया है । इसके प्रति लोगों को अपनी धारणाएं समय के अनुसार बदलनी होगीं ।
Saturday, May 9, 2009
मदर्स डे
Sunday, April 26, 2009
कर्म महान है (लघु कथा)
मयंक ने आवाज़ दी-‘‘रजनी ! देखो वो बेकार व सूखी कार्टरेज़ चल पड़ी। फिर चुटकी काटते हुए बोला-‘‘मेरी कार्टरेज़ व पत्नी दोनों एक समान है दोनों के एक से रिजल्ट हैं।’’
रजनी-‘‘हां भई! मुझे भी लिखने में प्रेरित कर तुमने किसी मुकाम पर पहुंचाने के लिए धक्का लगाया। लेकिन जनाब हीरा तो पहले खान में ही दबा होता है। दुनियां उसकी चमक देखती है, तराशने वाले की मेहनत कोई नहीं देखता।’’
पति-‘‘आखिर जौहरी तो मैं ही हूं। हीरा न पहचानता तो चमकता कैसे और दुनियां तक पहुंचता कैसे ?’’
रजनी-‘‘मेरा लिखने का काम तो लगभग रूक गया था जरा पुश बैक न मिलता और मेहनत व लगन की तपस्या के लिए प्रेरित न किया जाता तो मेरी किताब कभी पूरी नहीं होती।’’
पति-‘‘अब समझ जाओ मंजिल तक पहुंचने के लिए कदमों की गति कभी नहीं रोकनी चाहिए सतत गतिशील रहने से मंजिल कभी न कभी अवश्य मिलती है।
इतने में ही कम्प्यूटर से खर्र खर्र करता पन्ना निकला जिसपर गहरी स्याही से लिखा था- ‘‘कर्म महान है, लगातार चलते रहो
समय को मत देखो, मंजिल मिलेगी जरूर।’’
Tuesday, April 7, 2009
बुद्ध, महावीर, कृष्ण व राम को मूंछें क्यों नहीं ?
मूंछें पुरूषत्व की निशानी मानी जाती हैं । प्रारम्भिक काल में जिस पुरूष के मूंछें होती थी वह उन्हें बल दे देकर अपने बल का अभिमान किया करते थे । लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी पुरूषों के मूंछें हों । हमारा चेहरा हमारे भावों की प्ृष्ठभूमि है जो हमारे मन का दर्पण होता है और मूंछें उस पर अंकित पुरूषत्व भावना का एक चिन्ह । कई जातियों में मूंछें मर्दानेपन के सबूत के बतौर हैं बुद्ध, महावीर, कृष्ण व राम को मूंछें क्यों नहीं ?
भारत भूमि पर ये कुछ सिद्धि प्राप्त महापुरूष हैं जिनकी किसी भी तस्वीर में हमें मूंछें देखने को नहीं मिलती तो क्या ये पुरूष नहीं थे ? या इनमें पुरूषत्व की भावना निर्बल थी । मगर ऐसा नहीं है ये बड़े ही ज्ञानी व ध्यानी पुरूष रहें हैं । ज्ञान ही हमारे अस्तित्व का परम स्वरूप है । ध्यान उसी की तरफ एक-एक कदम चढ़ने का उपाए है । ध्यान ही ज्ञान की सीढ़ी है और भगवान को पाने के सारे मार्ग ध्यान के ही विविध रूप हैं । अतः मानव जीवन में ध्यान का विशेष महत्व है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने जप व तप का सहारा लिया । उन्हें दिव्यज्योति ज्ञान के पूर्ण होने पर ही प्राप्त हुई । मनुष्य का मन हर समय दौड़ता रहता है उसकी चंचलता को रोकना बड़ी मुश्किल बात है । लेकिन सिद्ध पुरूषों ने इसे कर दिखाया है ।
ध्यान के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति से इन महापुरूषों ने प्रसुप्त क्षमताओं को जगाया है और दिव्य शक्ति प्राप्त की है । प्रभु प्यास और निशब्द होकर ध्यान में नित्य दस मिनिट बैठना ही पूजा है, प्रार्थना है, जप-तप है । ध्यान के लिये कहा गया है कि अपने अंदर के चंचल मन की दौड़ रूकने का नाम ही ध्यान है । अंदर कोई गति न रहे, कोई प्रवाह न हो सब ठहर जाएं, जड़ हो जाएं सारे कंपन खत्म हो जाएं तो मनुष्य उसी क्षण परमात्मा हो जाए । यहां ध्यान ही क्योंकि ज्ञान की सीढ़ी है अतः इसे समझना भी जरूरी है । जितने भी अभी तक ज्ञानी हुए हैं उन्होंने ध्यान का ही रास्ता अपनाया है ।
ध्यान से ज्ञान की क्षमता बढ़ते-बढ़ते ज्ञानी हो जाते हैं और उनका चित्त स्त्रैण हो जाता है । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह स्त्रियां हो जाएंगें ।स्त्रैण का अर्थ है - ध्यान एवं ज्ञानी का चित्त एग्रेसिव की जगह रिसेप्टिव हो जाता है । आक्रामक की जगह ग्राहक बन जाते हैं और ऐसी स्थिति ग्राहकता तभी होती है जब कोई साधक परमात्मा के लिए अपने भीतर के द्वार खोल पाता है । अतः ऐसे साधकों का मन स्त्री के कोमल गुणों को प्राप्त होता है । कृष्ण ने अर्जुन से बार-बार कहा है कि तू लड़, इसलिए नहीं कि कृष्ण युद्धप्रिय व्यक्ति थे । बल्कि बात यह थी कि कृष्ण से ज़्यादा स्त्रैण चित्त का व्यक्ति खोजना बहुत ही मुश्किल था । इस पर सोचने में आता है कि अगर कृष्ण अर्जुन के रथ के बजाय भीम के रथ पर सार्थी बनकर बैठ गये होते तो क्या होता ? क्या गीता का जन्म होता ? क्योंकि भीम इतने आतुर व उतावले थे कि कृष्ण से कहते-‘ जल्दी रथ आगे बढ़ाओ मैं अभी इन चाचा ताऊओं की चटनी बना देता हूं, तब कृष्ण की हालत क्या होती ? कृष्ण स्वयं ही कहते - भैया क्षमा करो , यह युद्ध ठीक नहीं है ।’ और गीता पैदा ही न होती । इस संसार में सब का चुनाव करना पड़ता है कि क्या कम बुरा है और क्या अधिक बुरा ।
ध्यान योग यह निश्चित रूप से बताता है कि अशांति हटी,दृष्टा हुए या शांत हो गए तो व्यक्ति स्त्रैण हो जाता है और हारमोन्स बदल जाते हैं । वे आक्रामक एंग्रेसिव नहीं रहते ग्राहक हो जाते हैं । ये महान आत्माएं विचारक नहीं बल्कि दृष्टा थीं । कृष्ण दृष्टा थे, और ऐसे स्त्रैण थे कि उनके समान किसी को तलाश करना भी संभव नहीं हैं । इसी प्रकार अपने सद्गुणों से अपने अच्छे विचारों से ही राम, कृष्ण, बुद्ध,महावीर जैसी महान आत्माओं के हारमोन्स बदल गये थे इसी लिए हमने उनके चित्र में कभी मूंछ-दाढ़ी नहीं देखीं ।
हम सबके पास भी उतना ही है जितना मीरा के पास था लेकिन हम झुकने की कला नहीं जानते हैं । इस युग का मानव अपनी अकड़ में खड़ा है जबकि स्त्री भाव हुए बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता । स्त्री होने से आशय नारी देह का होना नहीं है । बल्कि इसका आशय समर्पण भव से है ।अगर देह (शरीर) स्त्री की भी हो और अंदर अकड़ हो तो वह पुरुषता हुई ।रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीर महिलाएं जो रण क्षैत्र में उतरीं उस समय वह स्त्री न होकर पुरुष रुप में युद्धभूमि में आयीं थी । उनके अन्दर की पुरुष भावना ने ही उनसे तलवार उठवायी थी । डाकू बनी फूलन देवी में स्त्री भावना गौण और पुरुषता की अधिकता के कारण ही वह बंदूक उठा पायीं थी । ऐसे ही यदि पुरुष का शरीर हो और अंदर अकड़ (अहंकार) न हो तो वह स्त्रैणता ही कहलाएगी । यह सभी भावना के चक्र में गुणों का फेरबदल है ।जो अहंकार के साथ व अहंकार से रहित हमें स्त्री और पुरुष का भेद कराता है ।इसमें मुख्य बात सत्य व ज्ञान तक पहुंचने पर बल दिया जाता है जिसका एकमात्र रास्ता स्त्रैणता से होकर जाता है ।
ध्यान का सम्बन्ध एकाग्रता से है ।एकाग्रता से आत्मशांति प्राप्त होती है ।धर्मों को जानाना तब तक अधूरा है जब तक एकाग्रता का समायोग न हो । अन्तर्मन की प्रासांगिक शांति एकाग्रता के रास्ते ध्यान से प्राप्त होती है ।रामकृष्ण परमहंस जैसे साध्य पुरुष ने एकाग्रता को चिंतन के रुप में शरीर पर हुई प्रतिक्रिया से जोड़ा है ।सखी संप्रदाय में एकमात्र भगवान को पुरुष के रुप में और बाकि सब स्त्रियों के 3प् में माने है।रामकृष्ण की अटूट साधना से उनके वक्षस्थल के उभरने और शरीर का स्त्री रुप् में रुपान्तरण ने एकाग्रता के महत्व को सिद्ध भी किया है ।उनकी साधना से उनका शरीर स्त्री का ,आवाज भी स्त्री की होगई यहां तक ही नहीं एकाग्रता ने जब पूरा जांर पकड़ा तो रामकृष्ण परमहंस को मासिक धर्म तक आने का विवरण हमें एकाग्रता की महिमा समझाता है ।
बुद्ध,महावीर,राम,कृष्ण की प्रतिमाएं गौर से देखने पर इनमें बड़ा स्त्रैण-माधुर्य है ।इनमें पुरुष का भाव प्रकट नहीं होता इसलिए तो इनकी दाढ़ी-मूंछ नहीं दिखाई गईं है ।क्या आपने कभी इनके चित्र दाढ़ी मूंछ वाले देखे हैं ? उनके हार्मोन्स बदल गए थे ,उनके अंदर जो जीवन था वह सदा युवा रहा ।आत्मा सदा युवा है । बचपन,युवावस्था,वृद्धावस्था द्वारा इसमें केवल स्टेशन बदल जाते हैं ।यह स्त्रैण भाव है ।इससे यह सूचना मिलती है कि समर्पण होगा तो ऐसी स्त्रैण भव दशा में होगा और परमात्मा हमारे भीतर उतरेगा ध्यान - योग के द्वारा । ध्यान के रुप में हमारे पास समस्त तालों की वह चाबी है , जिससे हम स्वंय के ,सहज में सम्पर्क में आने वालों के ,समाज के दुख व अशांति दूर कर सकते हैं ।