Saturday, November 14, 2009

"सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा, हम बुलबुले हैं इसके, ये गुलसितां हमारा"




















14 नवम्बर " बाल दिवस" विशेष
आज हमारे गुलसितां को कीड़ा लग गया है । कीड़े लगे पौधे कभी स्वस्थ वृक्ष नहीं बन सकते, न हीं स्वस्थ पर्यावरण दे सकते ।
यही बात हमारे उन नन्हे बेकसूर बाल मज़दूरों के लिए भी लागू होती है । कहते हैं किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके बच्चों पर निर्भर करता है और जब राष्ट्र के भविष्य का वर्तमान ही अंधकार में हो तो मन कड़्वाहट से भर जाता है । यह हम ही नहीं कह रहे बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति द्वारा किया गया सर्वेक्षण बता रहा है ।
आज विश्व में लगभग ११ करोड़ बाल मज़दूर हैं । जो अत्यन्त भयावह परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं । समिति की रिपोर्ट से सामने आया कि किस प्रकार से विश्व के अविकसित राष्ट्रों में बच्चों का शोषण हो रहा है और उन्हें अपना और अपने मां बाप का पेट भरने के लिए जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी बसर करनी पड़ रही है । इस तरह के ९७ % बाल मज़दूर तीसरे विश्व में अर्थात अविकसित राष्ट्रों में हैं । जिन राष्ट्रों में अशिक्षा एंव कुपोषण ज्यादा है वहीं इनकी मात्रा ज्यादा पायी गई ।
हमारे देश में ३० करोड़ बच्चों में से लगभग ४.५ करोड़ बच्चे अब तक मज़दूर बन चुके हैं और विभिन्न प्रकार के धंधों में लगे हुए हैं । दूसरे शब्दों में हमारे देश का हर सातवां बच्चा बाल मज़दूर की श्रेणी में आता है । इनका बचपन छीन कर कौन इन्हें मज़दूर बनाता है । गरीबी अपने आप में एक बीमारी है जहां भुखमरी,कुपोषण, अशिक्षा, के नाग हर तरफ फन फैलाए बैठे हुए हैं । कौन इन बीमारों
को और बीमार बना रहा है , मौत के मुंह में डाल रहा है , जघन्य अपराधिक प्रवृतियों में लिप्त होने को मज़बूर कर रहा है । परिस्थितियां, परिवेश या यह समाज़ ! अपना बच्चा हर किसी की आंख का तारा होता है फिर दूसरे के साथ ऐसा अमानवीय कृत्य क्यों किया जा रहा है ?
केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के अनुसार इस समय देश के सभी क्षेत्रों और सेवाओं में कार्यरत बाल मज़दूरों में से ६३ % किशोर, २२ % उससे कम उम्र के और शेष मासूम बच्चे हैं । बाल मज़दूरों की संख्या सभी राज्यों में मौज़ूद हैं , सबसे अधिक आंध्रप्रदेश इसके बाद मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र,उत्तर प्रदेश,बिहार, कर्नाटक एंव राजस्थान व पश्चिम बंगाल मे हैं । छोटे बच्चे भगवान के प्रतिरूप माने जाते हैं मगर यह भगवान ही मज़बूर हो बर्तन मांज़ते हुए मज़दूर में रूपांतरित हो जाते हैं । ये बच्चे कैसा कैसा काम नहीं करते ,क्या क्या नहींसहते । मुम्बई के बाल मज़दूर जूते साफ करने,होटलों में बर्तन धोने , कार साफ करने, कूढ़ा बीनने आदि का काम करते हैं । इनमें से २५ % बच्चे ६ से ८ वर्ष के , ५० % १० से १२ वर्ष के एंव शेष २५ % १३ से १५ वर्ष के होते हैं । यूनीसेफ के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि अकेले भारत में ही दो करोड़ बच्चों को अपना जीवन यापन करने के लिए दिनभर काम करना पड़्ता है । ये बच्चे अव्यवस्थित व्यवसायों में लगे हुए हैं जहां इनके मालिक इनका शोषण करते हैं । ये बच्चे पूरी तरह इनके मालिकों की दया पर जीते हैं । अधिक शारीरिक श्रम और मार खाना इनकी नियति है ।
इंदौर को ही ले लें यहां एक लाख से ज्यादा बाल श्रमिक हैं जिनका बचपन काम के तले कुचला जारहा है । यही नहीं इंदौर तो बाल श्रमिकों की मन्डी में तब्दील हो गया है । बाल श्रम को रोकने के लिए शासन की जवाबदेह्री नगण्य कही जा सकती है क्योंकि प्रदेश के १७ जिलों में तो श्रम विभाग के दफ्तर ही नहीं है जबकि इंदौर श्रम विभाग का मुख्यालय है । ज्यादातर बच्चे बाहर प्रदेशों से लाए जाते हैं ताकि वे स्थायित्व से रह सकें । अत्यन्त गरीब परिवार के इन बच्चों का रहना व खाना प्रतिष्ठा
न में ही होता है । काम लेने वाले बच्चों के खाते में कुछ पैसे डाल देते हैं या उनके मां बाप तक पहुंचा देते हैं । बच्चों के हाथ पैसा भी नहीं रहता और उनसे जमके काम लिया जाता है कमी होने पर मार तक खाते हैं । सोचिए परिस्थितियां बच्चों से किस तरह का काम करवाती हैं और गरीबी का क्या आलम रहता है जो इन्हें ठेके पर कचरा बीनना, शादियों के दौरान सिर पर झूमर रखकर चलना,चाय ठेला, होटल, गैरज,खदान,सब्ज़ीमन्डी,रेलवे स्टेशन,फुटकर व्यापारियों के यहा एंव जूता पौलिश व हम्माली जैसे कार्य करते हैं । जिनके हाथ में स्लेट -पेंसिल वर्ण माला लिखने के लिए होनी चाहिए थी वे स्लेट पत्थर ढोरहे हैं ।
यही कहानी है अफीम की मादकता से सराबोर मंदसौर जिले के स्लेट पेंसिल उधौग की जहां दस हज़ार से भी अधिक मज़दूर सिलिकोसिस रोग से पीड़ित नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं । यहां के कारखाना मालिकों की धन कमाओ वृत्ति बढ़्ती जाने का कारण अफीम से उपलब्ध राजस्व से अधिक स्लेट पेंसिल उधौग से राजस्व पाना है ।
अब तो हर चीज से डर लगने लगा है , बाज़ारवाद के चलते अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए उपयोग में लाए जाने वाले बच्चों की सिसकियां , खून व पसीने के साथ घूटती आहें सुनाई देने लगती हैं । क्या आप जानते हैं कि यूरोप में पसंद किए जाने वाले कश्मीरी कालीन निर्यात कर, व्यापारी इनसे २०० से ३०० % तक लाभांश कमाते हैं मगर इन्हें बनाने वालों के साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता है । स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिक्कूल प्रभाव डालने वाला यह काम उन नन्हे बच्चों की मज़बूरी बन जाता है । मां-बाप व खुद का पेट पालने के लिए बचपन के साथ अपने स्वास्थ्य का भी सौदा उन्हें करना पड़्ता है । क्योंकि कालीन बुनते समय उड़्ने वाली धूल और रेशों के कण सांसों के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं जिससे इन बच्चों को फेफड़ों की बीमारियां हो जाती है ।
इनसे निजाद पाने के लिए ही बालश्रम कानून १९८६ में आया जिसके अनुसार १४ साल से कम उम्र के बच्चे खतरनाक माने जाने वाले उधौगों में काम नहीं कर सकते । संविधान के ”फैक्ट्रीज एक्ट” में खतरनाक उधौगों की परिभाषा के अनुसार बीड़ी बनाना, कालीन बुनना,सीमेंट बनाना और उनकी बोरियां भरना,कपड़ा छ्पाई,दियासलाई, विस्फोटक और आतिशबाज़ी का निर्माण, चमड़ा,साबुन का निर्माण और उनका शोधन , ऊन की सफाई एंव भवन निर्माण हैं । सर्वोच्च न्यायालय ने इसको आधार मानकर १० अक्तूबर २००६ को अधिसूचना जारी कर सभी प्रकार के कारखानों व प्रतिष्ठानों में बच्चों के काम करने पर रोक लगा दी ।
क्योंकि बाल मज़दूरों का शोषण प्रायः उन सभी देशों में हो रहा है जहां उनकी थोड़ी बहुत उपयोगिता की गुंजाइश है । सरकार ने बाल मज़दूरों के शोषण रोकने के लिए कई कानून बनाए हैं मगर यह सब महज़ कागज़ी प्रतीत होते हैं । १९६१ के प्रशिक्षणार्थी अधिनियम के अनुसार १४ वर्ष या इससे कम उम्र के बच्चों को व्यावसायिक प्रशिक्षण नहीं दिया जासकता, लेकिन हाथकरघा और कुटीर उधौगों में ऐसे बच्चे कार्यरत हैं । बाल मज़दूर अधिनियम १९८६, बच्चों की कार्यावधि १२ से १६ घंटे से घटाकर उन्हें पढ़्ने की सुविधाएं देने तथा नहीं के बराबर मिलने वाली मज़दूरी को बढ़ाता है ।
विश्व में अस्त्रों और सैनिक व्यवस्था पर जितना खर्च हो रहा है यदि उसे स्त्रियों और बच्चों को समुचित आहार देने ,बच्चे के जन्म से पहले मां की देखरेख ,बच्चों की प्राथमिक शिक्षा , सफाई आदि पर खर्च किया जाए तो दुनियां के ५० करोड़ स्त्री व बच्चों को राहत मिल सकती है । बच्चों से कमाई करवाने के बजाए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम से लाभ उठा मां - बाप को खुद काम करने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए ।
बालश्रम अधिनियम के तहत बालश्रमिक रखने वाले प्रतिष्ठानों पर १० हज़ार का अर्थदंड और एक से छः माह की जेल का प्रावधान है । लेकिन सरकार के प्रयासों को सफल बनाने के लिए जनता की भागीदारी अतिआवश्यक है । इसके लिए आइये १४ नवम्बर ”बाल दिवस” के दिन हम यह प्रण करते हैं कि बाल शोषण न करेंगे न करने देंगे ।




Thursday, October 29, 2009

समाज सुधार (छत्तीसगढ की मासिक पत्रिका उदंती.com माह अगस्त 2009 में प्रकाशित)


शहर का जाना माना रईस था, जो कभी कबाड़ी हुआ करता था। प्रोपर्टी खरीद फरोख्त ने उसे शायद यह ऊंचाई दिखाई थी। शहर के हर कोने में बनी जाने कितनी बिल्डिंग का मालिक। समाज सेवक के रूप में पूजा जाने वाला बशेशर प्रसाद पैसा दानखाते में पानी की तरह बहाता। गरीब अविवाहित लड़कियों के धन देकर विवाह कराता। ताश की महफिलों में उठना बैठना उसकी दिनचर्या में शामिल था। महफिल से तभी उठता जब गडि्डयों का भार उसके हाथों में होता। एक हाथ से पैसा लेता दूसरे हाथ से गरीब लड़कियों के परिवारों पर खर्च करता। उसका रवैया सामान्य जन की समझ से बाहर था।

एक दिन श्यामा की मां को उसके बारे में पता चला और वो उससे मिलने उसके घर गई। बशेशर प्रसाद उस समय अपने बैडरूम में था, उसे भी वहीं बुला लिया। श्यामा की मां की नजर दो नवयुवतियों पर पड़ी जो उसके बैड के पास बैठी थीं ये देख उसकी उदारता से वह गद्गगद् हो उठीं कि गरीबों का कितना ख्याल रखता है बशेशर प्रसाद। अपने आराम के समय में भी दुखियों का दुख दर्द सुन रहा है। खैर! श्यामा की मां बोलीं-‘‘नमस्ते साहब! मैं एक गरीब दुखिया हूं मेरी जवान व खूबसूरत बेटी हाथ पीले करने लायक हो गई है आप थोड़ी सहायता करते तो हम पर उपकार होता।’’ बशेशर-‘‘उपकार कैसा? यह तो मेरा धर्म है कल से उसे यहां दो घण्टे के लिए भेज देना। मैं देखूंगा जो बन पड़ेगा करूंगा।’’ “यामा की मां घर लौट आयी घर आकर खुशी खुशी श्यामा को अगले दिन बशेशर प्रसाद के घर खुद छोड़ने गई। बशेशर प्रसाद के पी.ए. ने उसका नाम नोटबुक में लिखा और उसे बशेशर के बैडरूम में ले गया। मां देखती रह गई कमरे का दरवाजा बन्द हो गया। बशेशर के समाजसुधार कार्य में एक और पुण्य कार्य जुड़ गया, तो क्या हुआ? शबरी भी तो झूठे बेर राम जी को खिलाती थी ।




Friday, October 16, 2009

दीपावली पर लक्ष्मी व सरस्वती का संग-संग पूजन का महत्व


शुभ लक्षणों का सांकेतिक त्यौहार है दीपावली । यूं तो यह त्यौहार पांच दिन तक मनाया जाता है, कार्तिक कृष्णन त्रयोदशी ( धनतेरस ) से कार्तिक शुक्ल द्धतिया ( भाई दूज ) तक चलने वाले इस पंचमहोत्सव पर्व में दीपावली ही मुख्य त्यौहार है । पंचमहोत्सव पर्व के मध्य कार्तिक माह की अमावस्या के इस दिन लक्ष्मी व सरस्वती को संग संग पूजा जाता है एंव गणेश की उपासना की जाती है ।इस दिन पूजा में पोस्टरों, तस्वीरों,व फोटों में लक्ष्मी,सरस्वती व गणेश एक साथ देखने को मिलते हैं । इस दिन इनकी संग संग पूजा का महत्व जानना आवश्यक है । लक्ष्मी जी धन धान्य का सुख देने वाली हैं । इनके वरदान से जीवन की दरिद्रता दूर हो जाती है व सरस्वती जी विद्या एंव ज्ञान की दाता हैं । इनके वरदान से मानव जीवन में मलिनता व अज्ञानता का अंधकार मिटकर समृिद्ध का उजियारा हो जाता हैं। साथ ही गणेश जी को बुिद्ध का देवता माना गया है । इसीलिए इस दिन लक्ष्मी व सरस्वती की संग संग पूजा व गणेश की उपासना कर लोग धन, ज्ञान व बुिद्ध की प्राप्ति की कामना करते हैं। पुराणों में वर्णित है कि सरस्वती देवी का वाहन ‘हंस’ व ‘लक्ष्मी’ जी का वाहन उल्लू है । प्रत्यक्ष रुप में वैसे यह विरोधाभास है ,क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति धनी नहीं मिलता और जो धनवान होता है उसमें बुिद्ध व ज्ञान की कमी स्वत: ही हो जाती है । अत: सर्वांग गुणों की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी व सरस्वती को संग संग पूजा जाता है । विद्या का ज्ञान वह भंडार है जो अक्षुण्य,अचौर्य व असीम है । जो व्यक्ति पुस्तकीय ज्ञान के अलावा यथार्थ ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है यानि साधन सम्पन्न होकर अनुभव से ज्ञान प्राप्त करता है तो वह हंस के गुणों को प्राप्त हो जाता है ओर हंस कहलाता है ।इसी की उच्च पदवी परमहंस कहलाती है । हंस (पक्षी) को बुद्धमिान पक्षी माना गया है ,वह दूध पी लेता है और उसमें मिले जल को छोड़ देता है । सीपी में से मोती चुनके निगल लेता है और दूसरी वस्तुओं को छोड़ देता है । यह ज्ञान का परिचायक गुण है । इसी प्रकार ज्ञानी मनुष्य वह होता है जो सबके उत्तम गुणों को ग्रहण करता है और दोषों की और देखता भी नहीं । ऐसा करते करते वह पूर्ण ज्ञानी व पूर्ण पुरुष बन जाता है । साथ ही संसार से उसका मोह छूटने लगता है ,वह आत्मानंद का रसपान कर मस्ती में झूमने लगता है और मुग्ध व चिंता रहित हो जाता है और हंस कहलाता है। ऐसे लोगों के मस्तिष्क में सरस्वती का निवास रहता है ,यही उनकी सवारी है । अत: आत्मिक सुख की प्राप्ति व मोक्ष का मार्ग पाने के लिए सरस्वती की अराधना की जाती है। लक्ष्मी जी धन की देवी हैं, इनका वाहन ‘उलूक’ या ‘उल्लू’ बताया गया है। लक्ष्मी को पाते ही मनु’य विवेकहीन हो जाता है ,वह अपने आप को सबसे उंचा, सुखी एंव सबसे बुद्धमिान समझने लगता है । जबकि लक्ष्मी जी तो स्वभाव से चंचला हैं, वह कभी एक जगह नहीं रहतीं ,आज यहां तो कल वहां । अगर आज उन्हें पाकर कोइ धनवान है, तो उनके जाने से कल वही कंगाल भी हो सकता है । धन का नशा व्यक्ति को ऐसा मतवाला बना देता है कि वह ईश्वर को ही भूल जाता है । गरीब और दुखी लोगों की और आंख उठा कर भी नहीं देखता । शरीर के पालन पोषण और भोग विलास को ही वह अपना मुख्य कर्तव्य समझने लगता है । अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को कष्ट देने और दूसरों की पूंजी छीनने में भी उसे संकोच नहीं होता । गरीबों को सताना उसके लिए मामूली बात हो जाती है , ऐसा अहंकारी , विवेकशून्य मनुष्य उल्लू ही कहा जा सकता है । जिसे आगे पीछे का ज्ञान न हो,जो अंधे की तरह गलत रास्ते पर जा रहा हो , भलाई बुराई को न जानता हो और परिणाम की न सोचे वह उल्लू बोला जाता है ।लक्ष्मी जी भी यहां वहां के चक्कर में मनुष्य को उल्लू बना देती हैं। इसी कारण यही उल्लू इनका वाहन है। जीवन की ज्योत व ज्ञान का घी ही सच्चे मायने में अंधकार को दूर करने में सक्षम है ,जो धन रुपी दीपक के शरीर में प्रज्जवलित होते हैं। दीपावली की जगमगाती राित्र अधर्म पर धर्म की विजय का पाठ दोहराती , दीपिशिखाओं से सज्जित राम आदर्श प्रस्तुत करती हैं । पूजन के साथ-साथ ‘श्री सूक्त और कनक धारा सत्रोत’ का भी पाठ किया जाता है । इस दिन लोग तिजोरी, बहीखाते, लेखनी का पूजन भी करते हैं। जिसमें स्वंय लक्ष्मी,सरस्वती व गणेश वास करते हैं । बिना ज्ञान व बुिद्ध ( सरस्वती )के धन (लक्ष्मी) की प्राप्ति असंभव है । इसलिए लक्ष्मी व सरस्वती का संग संग पूजन आवश्यक है ।

Sunday, September 13, 2009

यज्ञों से होती है वर्षा (जयपुर की ज्योतिष सागर पत्रिका में प्राकाशित)


वर्तमान में हमें अकाल जैसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ रहा है । आज हम वर्षा ऋतु के पानी पर ही निर्भर हैं, जबकि पूर्वोत्तर काल में ऋषि मुनियों द्धारा यज्ञादि शक्तियों का सहारा लेकर भी वर्षा करायी जाती थी । प्राचीन समय में प्रत्येक धर में नियमानुसार यज्ञों का प्रचलन था । भौतिकता के इस युग में विशिष्ट आयोजनों पर ही यज्ञों का प्रचलन सीमित रह गया है । हाल ही में बोरखेड़ा में संत कौशिक महाराज द्धारा यज्ञों का आयोजन कर वर्षा कराये जाने की महत्वता पर बल दिया । उन्होने यज्ञ वेदी की अग्नि को देवताओं का मुख व उसमें दी गई । आहुति को प्रत्यक्ष रुप से उनका भोजन माना , जो वायु में मिलकर प्राणी मात्र तक पहुंचता है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यज्ञ वात विज्ञान से जुड़ा है । वेदों ने भी इसकी पुष्टि की है । ”शनो वात: पवतां “शं नस्तपतु सूर्य: ”शं न: कनिक्रदद्धेव पर्जन्यो अभिवर्षतु ।। वेद के उपरोक्त मंत्र में अच्छी वर्षा के लिये कल्याणकारी वायु के चलने का उल्लेख है। किस प्रकार की वायु से मेघों की उत्पत्ति होगी, किस प्रकार की वायु से मेघों का विनाश होगा,किस प्रकार की वायु से मेघ बरसेगें, यह वर्षा संबंधी वात ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। वेद ने वात ( वात्र वायु + त त्र ताप ) त्र ( वायु+ताप ) त्र तापित वायु को मेघ का मूल उद्गम बताते हुए कहा है-‘वाताय स्वाहा, घूमाय स्वाहा,अभ्राय स्वाहा,मेघाय स्वाहा’ अब प्र”न यह उठता है कि मेघ कैसे बनते हैं। भौतिक अग्नि में कि्रया करने से,उसमें द्रव्यों की आहूति देने से अथवा सूर्य के ताप से ,तपित वायु घूम से ( युक्त ‘जलीय वाष्प को धारण करने वाली ) होकर अभ्र स्थिति को प्राप्त होती है और वही मेघ बनती है। ऐसी स्थिति में वात का ज्ञान इस का्र्य लिये आवश्यक है। पूर्वो भ्रजननो वायुरितरो भ्र विनाशन:। उत्तरो वृष्टिजनको वर्षत्येव च दक्षणि: ।। पूर्व की हवा बादल और वर्षा लाती है। पशिचम की हवा मेघ एवं वृष्टि का नाशक हैं। उत्तर की हवा वृष्टि को उत्पन्न करके बरसाती ही है, और दक्षणि की हवा केवल हवा ही चलती है परन्तु वृष्टि नहीं कराती। अत: पूर्व और उत्तर की वायु ही वृष्टि कार्य के लिये शं वात:’-सुखकारी वात है। यह शं वात:भी भावक ,स्थापक एवं ज्ञापक भेद से तीन प्रकार की होती है। भावक से बादल उत्पन्न होते हैं। स्थापक से बादल स्थित होते हैं। और ज्ञापक वायु से आने वाली वृष्टि का पहले से ही ज्ञान होता है। हर वायु सुखकारी नहीं होती, जैसे दक्षणि,नैऋत्य एंव वायव्य कोण की वायु मेघों का नाश करने वाली होने से श वात:’ नहीं है। बादलों में शोष वायु के उत्पन्न होने पर बादलों की स्निग्घता नष्ट हो जाती है। वे फटे-फटे रूक्ष से,बिखरे से हो जाते हैं और वर्षा नहीं होती। यदि अन्य प्रबल कारणों से वर्षा का योग हो भी जाये तो वायु की प्रचण्डता से थोड़ी ही वर्षा होती है या वह वायु जल शोषण करने से अल्पवृष्टि की हो जाती है। इसी प्रकार -शं नस्तपतु सूर्य:-के अनुसार जब सूर्य की तपन विशेष होती है तो वर्षा शीघ्र ही हो जाती है। वेद में - स्वाहा सूर्स्यय रश्मये वृष्टि वनये - अर्थात सूर्य की वे रश्मियां जो वृष्टि लाती हैं,उनके लिये कि्रया हो। इससे स्पष्ट है कि जब सूर्य की रश्मियों का वृष्टि कराने में ताप की विशेष रूप से क्रियाशीलता होती है तो वृष्टि दूर-दूर तक होती है। इसलिए वर्षा ऋतु में जिस दिन सूर्य अत्यन्त प्रखर और असहाय ताप देने वाला हो और घृत के वर्ण के सदृश्य प्रभा वाला हो तो उस दिन वर्षा अवश्य होती है। इसी प्रकार -शं न: कनिक्रदद्धेव पर्न्यज:’ जब मेघ अपनी शुभ लक्षणयुक्त गर्जना करते हैं तब भी दूर-दूर तक वर्षा होती है। यह गर्ज़ना विद्युत स्फुरण से होती है अत: वर्षा के लिये विद्युत ज्ञान की आवश्यकता है। लोगों का मानना है कि वर्षा कराना मानवकृत प्रयत्नों से संभव नहीं है, यह तो प्रकृति के ही आश्रति है लेकिन ऐसा नहीं है, थोड़ा सोचने पर कि कैसे प्राकृतिक कारणों से नदी अपना मार्ग बना लेती है यदि हम भी नहरें आदि अपनी बुिद्ध एंव पुरूषार्थ के बल से बनायें तो नदियों का जल उन मार्गों से भी बहने लगेगा। इसी प्रकार वर्षा एक विज्ञान है जिसे समझ कर प्रकृति को अनुकूल बनाकर वर्षा भी कराई जा सकती है। जिससे देश की प्रजा सुखी एंव समृद्ध हो सकती है। प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिये यज्ञ का सहारा लेना पड़ता है,जो सतयुग से चला आ रहा है । भगवान राम भी यज्ञादि द्धारा शक्ति अर्जन करते थे। इसके लिये इस मंत्र का प्रयोग किया जाता है- ‘भूमि पर्जन्या जिवन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नम:’। इसका अर्थ है भूमि को वर्षा के द्धारा मेघ तृप्त करते हैं और द्युलोक को तृप्त किया जाता है, और वर्षा सम्पन्न करायी जाती है। कहते हैं मेघ यानि बादल वर्षा लाते हैं लेकिन ये भी तीन प्रकार के होते हैं- अग्निज,अनि्रज एंव दिव्य मेघ । मेघ से वर्षा पृथ्वी पर आती है और अग्नि के द्धारा पृथ्वी का जल ताप से वाष्पमय होकर, गर्म वायु के साहचर्य से और वहां के ताप से अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है। पृथ्वी पर से हुइZ इस कि्रया से उत्पन्न मेघ अग्निज है। आकाश,नक्षत्र और ग्रहों के योग से उत्पन्न होने वाले मेघ दिव्य हैं। तीनों प्रकार से उत्पन्न मेघों का स्थान अन्तरिक्ष ही है अत: एक प्रकार की मेघों की वर्षा से दूसरे प्रकार की मेघों में भी वर्षा कि्रया आरम्भ हो जाती है । जिसे बच्चों को सिखाते हैं, दो बादलों के टकराने से वर्षा होती है । अब यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी स्थिती आ जाये कि पूवोZक्त तीनों प्रकार के मेघों का निमाZण यथोचित न हुआ हो या अनेक प्रकार के दोषों के कारण अवर्षा ( अकाल ) की स्थिति आ जाये तो यज्ञ के द्धारा मेघों का निर्माण करके इसके साहचर्य से उन मेघों को भी बरसाया जा सकता है । यज्ञ द्धारा उत्पन्न ये मेघ पर्जन्य भी कहलाते हैं । हमारे प्राचीन ऋषि मुनि यज्ञ द्धारा ही मेघों को उत्पन्न करते थे ।वैदिक यज्ञ विज्ञान की क्रियाओं के आधार पर मेघों एंव वर्षा पर नियन्त्रण सरलता से स्थापित किया जा सकता है । वर्षा का संबंध केवल वर्षा के ही बादलों एंव मानसून पर आधारित नहीं है बल्कि शेष वर्ष में जो स्थिति अंतरिक्ष, वायु, विद्युत, नक्षत्र, चंद्र,सूर्य एंव बादलों की होती है ,उसपर भी प्रमुख रूप से आधारित है ।

Thursday, August 6, 2009

भारतीय नारी (राजस्थान साहित्य अकादमी की मधुमती पत्रिका मई 2009 में प्रकाशित)

एक सब्ज़ीवाली नित दोपहर मालती के घर की कालबैल बजाती।
‘‘बीवीजी! कुछ सब्ज़ी लेंगीं ?’’
मालती-‘‘नहीं! अभी नहीं चाहिए।’’
सब्ज़ीवाली-‘‘कुछ तो ले लो, हम दो कोस चलकर यहां आतीं हैं सब्ज़ी बेचने के वास्ते। अच्छा न लेयो तो पानी ही पिलाय देओ।’’
मालती पानी देते हुए-‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
सब्ज़ीवाली-‘‘दुलारी!’’
अब तो रोज़ का सिलसिला हो गया, दुलारी थकी मांदी आती और अपना स्टापेज़ समझ कुछ देर विश्राम करती। इस दौरान अपने छोटे बड़े किस्से सुनाती। अक्सर कभी उसकी आंख सूजी होती, तो कहीं नील पड़ी होती। कभी कभी तो उससे चला भी नहीं जाता इतनी चोट लग जाती। पूछने पर कहती उसका पति शराब पीकर उससे दिनभर की कमाई छीन लेता है। कुछ घर खर्च के लिए रख लेती और नहीं देती, तो मारता है। एक दिन दुलारी के आने का समय गुज़र गया और वह नहीं आयी अभी यह सोच ही रही थी कि मोड़ पर कुछ शोर सुना। शायद कोई औरत बेहोश हो गई थी। बाहर जाकर देखा तो दुलारी ही थी। खैर! उसे घर लायी और पानी पीने को दिया तो कहने लगी-‘‘नाहीं बीवीजी! आज हमार करवा चौथ कोउ व्रत हैगा, हमने पानी की एकहुं बूंद सुब्बे से नाहीं लेईं। तबहीं तो हम बेहोस हो गईं।’’
मालती ने कहा-‘‘तू तो पेट से है न ? फिर इतना सख्त व्रत ?’’
दुलारी-‘‘का करें आखिर भरतार के लिए सबहीं करना पड़ता है।’’

Monday, July 20, 2009

अपने -पराये

नदी में डूबते हुए एक युवक को मल्लाहों ने खींच कर बाहर निकाल लिया । किनारे पर बैठा एक साधु यह देख रहा था । बाहर आकर युवक दुखी स्वर में बोला - ‘ आपने मुझे क्यों बचा लिया , जिनके साथ मैंने अच्छा किया था , उन्होने मेरे साथ बुरा किया । आपके साथ न मैंने अच्छा किया , न बुरा किया फिर भी आपने मुझे बचा लिया ।’
उसकी बात सुन साधु बोला -‘पुत्र! अपने तो स्वार्थ के होते हैं , और पराये निःस्वार्थ के जिदंगी का यह सच कितना कड़वा था मगर एकदम सच ।

Monday, June 29, 2009

पानी और बुलबुला

आपको पता है प्रकृति बोलती है । ये चांद सितारे,हवा,पानी,फूल,पत्थर सभी आपस में बातें करते हैं । ऐसी बातें जिनकी न तो कोई भाषा होती है,और ना ही शब्द । हमें सुनायी देती है तो एक हल्की गूंज जिसे हम इनका शोर समझते है । यक़ीन नहीे होता तो सुनिये पानी और बुलबुले का वार्तालाप, एक दिन पानी ने नितांतउदास स्वर में बुलबुले से कहा - ‘मित्र,तुम हर क्षण मुझमें उठते हो और दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाते हो । तुम्हारे इस क्षणिक जीवन से क्या लाभ ?’
बुलबुले ने उत्तर दिया - ‘ अरे! हम हमारे लिये थोड़े ही जीते हैं,हम तो दूसरों की आंखें खोलने के लिये जीते हैंकि तुम भी हम जैसे ही हो । तुम्हारा जीवन भी क्षणिक है ।’
पानी ने फ़िर पूछा - ‘ तो क्या तुम्हारी बात सुनी है किसी ने आज तक ?’
बुलबुला - ‘भले ही न सुने कोई मग़र हमें तो अपने छोटे से जीवन को सोद्धेश्य बनाना ही है ।’
जब यह बात एक बुलबुला सिखा रहा है तो हम क्यों न सीखें अपने जीवन को उद्वेश्यपूर्ण बनाना

Wednesday, June 3, 2009

शुभाशुभ की कसौटी पर छींक (जयपुर की पत्रिका ज्योतिष सागर दिसम्बर 2002 में प्रकाशित लेख )


भारतीय प्रष्ठभूमि में कुछ मान्यताएं व धारणाएं इस कद़र रची बसी हैं,कि समय असमय हमें प्रभावित करती हैं ।पहले लोग इन्हें स्वभावतः स्वीकारते थे, हमारे रामायण जैसे महाग्रंथ में भी छींक का उल्लेख किया गया है कि -
दीख निषादनाथ भल टोलू । कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ।।
एतना कहत छींक भइ बांए । कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
अर्थात् भरत के आगमन की बात सुनकर निशादराज ने वीरों का बढ़िया दल देख कर कहा कि जुझाऊ ढोल बजाओ ।इतना कहते ही बाईं ओर छींक हुई ।शगुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर है (जीत होगी)। बूढ़े व्यक्ति ने कहा भरत से मिल लीजिये, उनसे लड़ाई नहीं होगी क्योंकि इस समय भरत राम जी को मनाने जा रहे हैं ।शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है, यह सुनकर निशादराज गोह ने कहा बूढ़ा ठीक कह रहा है बिना विचारे कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं । अतः ये संदर्भ बताता है कि रामचन्द्र जी के ज़माने से छींक पर शगुन-अपशगुन के विचार चले आ रहे हैं ।जिन्होनें कई बार अच्छा परिणाम दिया तो कई बार शत्रुता या युद्ध की घोषणा करवायी ।
मगर आज इस बात को तार्किक दृष्टि से देखा व जाना जाता है । उसका लाज़िक समझने के उपरांत ही हम इसे निर्मूल सिद्ध कर सकते हैं ।ऐसी ही एक मान्यता छींक के प्रति बनी हुई है । 
छींक का आना यूं तो शारीरिक प्रतिक्रिया है , परन्तु लोगों ने इसके विषय में अलग - अलग धारणाएं बना रखी हैं । छींक का विभेदन किया जा चुका है ।शुभ व अशुभ छींक कह कर छींक को परिस्थिति के परिणाम में विभाजित कर दिया है । बनते काम की छींक शुभ होती है , और अगर काम बिगड़ गया तो अशुभ ।
छींक की प्रचलित धारणाएं इस प्रकार हैं -जैसे
शुभ व मंगलकारी छींक के मान्य विचार -
1. चलते समय अपनी पीठ के पीछे अथवा बाईं ओर को छींक हो तो वह शुभ फल देती है ।
2. चलते समय ऊंचाई पर छींक हो तो वह शुभ फलदायक होती है ।
3. यदि किसी व्यक्ति को एक साथ दो छींकें हों तो वह शुभ फलदायक होती है ।
4. आसन , शयन , शौच , दान , भोजन , औषधि-सेवन , विद्यारम्भ , बीज बोने का समय , युद्ध अथवा विवाह के लिये जाते समय छींकना शुभ फलदायक होता है ।
अशुभ व अमंगलकारी छींक के मान्य विचार -
1. चलते समय यदि सामने की ओर कोई छींकें तो झगड़ा होता है ।
2. चलते समय दाईं ओर छींक हो तो धन की हानि होती है ।
3. कन्या , विधवा , वेश्या , रजस्वला , मालिन , धोबिन तथा हरिजन स्त्री की छींक अशुभ फल देने वाली होती है । इनके छींकने पर यात्रा स्थगित कर देनी चाहिये तथा कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिये ।
काम का बनना या बिगड़ना योग , संजोग व समय तय करता है । सफलता या असफलता की कुंजी समय के हाथ में और आपके अपने द्वारा किए कर्मों के फल का प्रतिरूप है । सुख - दुख की यह धूप - छांव हर मनुष्य को झेलनी पड़ती है , फिर इनके बीच में यह छींक कहां से आ गई ?
कहिये छींक पर भी किसी का बस हो सकता है ? आजकल बढ़ते प्रदूषण में छींक आना मामूली बात है । असाधारण परिस्थिति व अशुद्धियों का शरीर में प्रवेश छींक को जन्म देते हैं ।घर और बाहर के अलग-अलग वातावरणों में छींक के कारण भी बदल जाते हैं ।
घर से संबंधित कारण
1. रसोईघर से आती हुई धस या उड़ते छौंक का नाक में प्रवेश्। करना ।
2. ग़र्म सर्द़ तापक्रम का अन्तर होना ।( जैसे एयर कंडीशंड कमरों या शो रूम आदि से एकदम बाहर आना ।)
3. सूर्य की ओर सीधे देखने से उसकी तेज़ रौशनी व पराबैंगनी किरणों का नाक व आंखों में प्रवेश ।
4. धूल के कणों का साफ़ - सफ़ाई के समय नाक में प्रवेश।
बाहृय कारण
1.वायु प्रदूषण (वाहनों एंव कारखानों की बढ़ती संख्या से होने वाले प्रदूषण का नाक में प्रवेश करना) ।
2. धूल के कण , तीक्ष्ण हवा, धुएं ,एंव अशुद्ध वायु का नाक में प्रवेश ।
जिस तरह से गाड़ी के इंजन में कचरा जाने से रोकने के लिये तेल छननी का इस्तेमाल किया जाता है , उसी प्रकार ईश्वर द्वारा निर्मित मानव रूपी गाड़ी के इंजन में अवांछनीय व अशुद्ध चीज़ो के प्रवेश को रोकने के लिय नाक का छननी के रूप में प्रयोग किया गया है । जो अवांछनीय व अशुद्ध चीज़ों को नाक में प्रवेश करते ही स्वचालित शारीरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया, छींक के माध्यम के द्वारा उन्हें बाहर निकाल देती है । जिसे भगवान ने शरीर की सुरक्षा की दृष्टि से समय-समय पर गाड़ी के हार्न की तरह इस्तेमाल किया है । इसके प्रति लोगों को अपनी धारणाएं समय के अनुसार बदलनी होगीं ।

Saturday, May 9, 2009



                                            मदर्स डे
माँ को त्याग व ममता की मूर्ती कहा जाता है। उसे सम्मान देने के लिए आज सम्पूर्ण विश्व १० मई को मदर्स डे की ११० वीं वर्ष गाँठ मनाने जा रहा है। कहते हैं न कि पूत कपूत हो सकता है मगर माता कभी कुमाता नही होती। वह जीवनदायिनी है, माँ है, शिक्षिका है, संस्कारवाहिनी है, निर्देशिका है, आज के ज़माने में अच्छी दोस्त भी ऐसीमाँ को शत-शत नमन। इस दिन माँ को उपहार देकर अपनी कृतज्ञता जताई जाती है, ज़रा से सम्मान से ही माँ के प्यार की निश्छलता और बड़ जाती है। मदर्स डे की स्थापना क श्रेय अन्ना जार्विस को जाता है जिन्होनें दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय दिवस को कोमल संवेदनाओं द्वारा माँ के सम्मान में अभिव्यक्त करने से शुरुआत की। यह घटना १९०५ के समय की है जब जार्विस ने माँ की मौत के तीन साल बाद उसी चर्च में जहां माँ को भीगे पलों मे अलविदाकहा था वहीं से पहले अधिकारिक मदर्स डे का आयोजन किया। 
आप सब को बहुत शुभकामनाएँ। माँ होने के दो महत्वपूर्ण पहलू होते हैं। पहला है बिना शर्त असीम प्यार और दूसरा बच्चे की ज़रूरतें समझ कर उन्हें पूरा करना और इसके लिए कुछ भी कर गुज़रना। इसके विपरीत पिता का प्यार शर्तों में बँधा है। अगर आपका व्यवहार अच्छा है, आप पढाई में तेज़ है, उनकी उम्मीदोंपर खरे उतरते हैं तो आप इस प्यार के हकदार हैं। वैसे तो हम में से कोईभी हमेशा बिना शर्त प्यार नहीं लुटाता पर कभी न कभी ऐसा प्यार करते हैं। हम सब को ज़रूरत होती है दोनों किस्म के प्यार की । मां के लिए बहुत आसान होता है गोद के बच्चे को बिना शर्त प्यार देना और उसकी ज़रूरतें समझना । बच्चे जब बड़े होने लगते हैं तब कुछ नियम व कानून की आवश्यकता पड़ती है यहां बिना शर्त प्यार वाली बात बच्चों के भविष्य को नुकसान पहुंचा सकती है अतः यहां से पिता के शर्त वाले प्यार की आवश्यकता होतीहै । जरूरतों और मांगों में बच्चों व बड़ों दोनों को फर्क समझना ज़रूरी है । मां बिना कहे ज़रूरतों को समझती है और अपनी ताकत के अनुसार मांगों को भी पूरी करती है। मां बच्चे को,संवाद एक दूसरे की ओर करीब लाते हैं । हम सब में कहीं न कहीं मां व बच्चा दोनों छुपे हैं जो समयानुरूप अपनी भूमिकाएं अदा करते है । कई लोग इन्हें भावनाओं , संवेदनाओं से न जोड़्कर सिर्फ बाज़ार कैप्चर करने का दिन मानते हैं । मगर हर दिन अपनी अहमियत रखता है आज के ज़माने में प्रदर्शन एक ज़रूरत बन गया है । प्रदर्शन बुरी चीज़ नहीं है यह तो किसी से भी प्यार की स्पीड बढ़ाने वाली एक सहायक मास्टर चाबी है । जो बात आप दो साल में समझेंगे इसमें समय बेकार होगा बजाय इसके कि दो पिन में अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर दी जाएं । सुख-दुख , क्रिया-प्रतिक्रिया के विज्ञान के नियम पर चलते हैं । आपको सुख पहुचानें वाले को यदि आप अपनी कृतज्ञता शब्दों ,फूलों ,उपहारों या कार्ड व एस.एम.एस.द्वारा प्रदर्शित करेंगे तो उसके प्यार की बगिया निश्चलता से निश्चित ही महक उठेगी और आपके आपके जीवन में एक मीठी सुगंध भर देगी ।
यदि आप मदर्स डे मनाने जा रहे हैं तो अपने सेलीब्रेशन का थोड़ा सा तरीका बदल कर देखें मां वारी वारी जाएगी । इस दिन मां के मुताबिक रह कर उसे सम्मानदें उसकी सिखाई बातों का अनुसरण करें ,उसकी बहुत दिनों से चली आरही आपके प्र
ति किसी शिकायत को खत्म करें । मां को उसके सिखाए संस्कार अपने प्यार के आईने में एक बार अवश्य दिखाएं ताकि मां कादिल अपनी शिक्षा व परवरिश पर गर्वित हो सके । यही हमारी भारतीय संस्कृति व संस्कारों में जान डालेगा । समयानुसार पाश्चात्य तौर तरीके तो हैं ही केक ,पार्टी,गिफ्ट आदि । लेकिन दोस्तों भारतीय मां के लिए एक दिन भारतीय संतान के रूप में दें तो मैं और इस भूमि की तमाम मांएं आभारी होंगी ।

Sunday, April 26, 2009

कर्म महान है (लघु कथा)

सुबह-सुबह अतिप्रसन्नता से मयंक का दिल नाच उठा जब कम्प्यूटर की सूखी कार्टरेज़ जिसे उसने रात भर पानी में डुबोए रखा था इसी उम्मीद से कि शायद चल जाए। वही कार्टरेज़ धकाधक सुन्दर शब्दों को कागज़ पर फर्राटे से छाप रही थी। यकायक उसकी निगाह उसकी पत्नी पर पड़ी जो बड़ी लगन से टेबल पर बैठी कुछ लिख रही थी।
मयंक ने आवाज़ दी-‘‘रजनी ! देखो वो बेकार व सूखी कार्टरेज़ चल पड़ी। फिर चुटकी काटते हुए बोला-‘‘मेरी कार्टरेज़ व पत्नी दोनों एक समान है दोनों के एक से रिजल्ट हैं।’’
रजनी-‘‘हां भई! मुझे भी लिखने में प्रेरित कर तुमने किसी मुकाम पर पहुंचाने के लिए धक्का लगाया। लेकिन जनाब हीरा तो पहले खान में ही दबा होता है। दुनियां उसकी चमक देखती है, तराशने वाले की मेहनत कोई नहीं देखता।’’
पति-‘‘आखिर जौहरी तो मैं ही हूं। हीरा न पहचानता तो चमकता कैसे और दुनियां तक पहुंचता कैसे ?’’
रजनी-‘‘मेरा लिखने का काम तो लगभग रूक गया था जरा पुश बैक न मिलता और मेहनत व लगन की तपस्या के लिए प्रेरित न किया जाता तो मेरी किताब कभी पूरी नहीं होती।’’
पति-‘‘अब समझ जाओ मंजिल तक पहुंचने के लिए कदमों की गति कभी नहीं रोकनी चाहिए सतत गतिशील रहने से मंजिल कभी न कभी अवश्य मिलती है।
इतने में ही कम्प्यूटर से खर्र खर्र करता पन्ना निकला जिसपर गहरी स्याही से लिखा था- ‘‘कर्म महान है, लगातार चलते रहो
समय को मत देखो, मंजिल मिलेगी जरूर।’’

Tuesday, April 7, 2009

बुद्ध, महावीर, कृष्ण व राम को मूंछें क्यों नहीं ?

(यह लेख जयपुर की ज्योतिष सागर पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है )
मूंछें पुरूषत्व की निशानी मानी जाती हैं प्रारम्भिक काल में जिस पुरूष के मूंछें होती थी वह उन्हें बल दे देकर अपने बल का अभिमान किया करते थे लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी पुरूषों के मूंछें हों हमारा चेहरा हमारे भावों की प्ृष्ठभूमि है जो हमारे मन का दर्पण होता है और मूंछें उस पर अंकित पुरूषत्व भावना का एक चिन्ह कई जातियों में मूंछें मर्दानेपन के सबूत के बतौर हैं बुद्ध, महावीर, कृष्ण राम को मूंछें क्यों नहीं ?
भारत भूमि पर ये कुछ सिद्धि प्राप्त महापुरूष हैं जिनकी किसी भी तस्वीर में हमें मूंछें देखने को नहीं मिलती तो क्या ये पुरूष नहीं थे ? या इनमें पुरूषत्व की भावना निर्बल थी मगर ऐसा नहीं है ये बड़े ही ज्ञानी ध्यानी पुरूष रहें हैं ज्ञान ही हमारे अस्तित्व का परम स्वरूप है ध्यान उसी की तरफ एक-एक कदम चढ़ने का उपाए है ध्यान ही ज्ञान की सीढ़ी है और भगवान को पाने के सारे मार्ग ध्यान के ही विविध रूप हैं अतः मानव जीवन में ध्यान का विशेष महत्व है मोक्ष की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने जप तप का सहारा लिया उन्हें दिव्यज्योति ज्ञान के पूर्ण होने पर ही प्राप्त हुई मनुष्य का मन हर समय दौड़ता रहता है उसकी चंचलता को रोकना बड़ी मुश्किल बात है लेकिन सिद्ध पुरूषों ने इसे कर दिखाया है
ध्यान के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति से इन महापुरूषों ने प्रसुप्त क्षमताओं को जगाया है और दिव्य शक्ति प्राप्त की है प्रभु प्यास और निशब्द होकर ध्यान में नित्य दस मिनिट बैठना ही पूजा है, प्रार्थना है, जप-तप है ध्यान के लिये कहा गया है कि अपने अंदर के चंचल मन की दौड़ रूकने का नाम ही ध्यान है अंदर कोई गति रहे, कोई प्रवाह हो सब ठहर जाएं, जड़ हो जाएं सारे कंपन खत्म हो जाएं तो मनुष्य उसी क्षण परमात्मा हो जाए यहां ध्यान ही क्योंकि ज्ञान की सीढ़ी है अतः इसे समझना भी जरूरी है जितने भी अभी तक ज्ञानी हुए हैं उन्होंने ध्यान का ही रास्ता अपनाया है
ध्यान से ज्ञान की क्षमता बढ़ते-बढ़ते ज्ञानी हो जाते हैं और उनका चित्त स्त्रैण हो जाता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह स्त्रियां हो जाएंगें ।स्त्रैण का अर्थ है - ध्यान एवं ज्ञानी का चित्त एग्रेसिव की जगह रिसेप्टिव हो जाता है आक्रामक की जगह ग्राहक बन जाते हैं और ऐसी स्थिति ग्राहकता तभी होती है जब कोई साधक परमात्मा के लिए अपने भीतर के द्वार खोल पाता है अतः ऐसे साधकों का मन स्त्री के कोमल गुणों को प्राप्त होता है कृष्ण ने अर्जुन से बार-बार कहा है कि तू लड़, इसलिए नहीं कि कृष्ण युद्धप्रिय व्यक्ति थे बल्कि बात यह थी कि कृष्ण से ज़्यादा स्त्रैण चित्त का व्यक्ति खोजना बहुत ही मुश्किल था इस पर सोचने में आता है कि अगर कृष्ण अर्जुन के रथ के बजाय भीम के रथ पर सार्थी बनकर बैठ गये होते तो क्या होता ? क्या गीता का जन्म होता ? क्योंकि भीम इतने आतुर उतावले थे कि कृष्ण से कहते-‘ जल्दी रथ आगे बढ़ाओ मैं अभी इन चाचा ताऊओं की चटनी बना देता हूं, तब कृष्ण की हालत क्या होती ? कृष्ण स्वयं ही कहते - भैया क्षमा करो , यह युद्ध ठीक नहीं है और गीता पैदा ही होती इस संसार में सब का चुनाव करना पड़ता है कि क्या कम बुरा है और क्या अधिक बुरा
ध्यान योग यह निश्चित रूप से बताता है कि अशांति हटी,दृष्टा हुए या शांत हो गए तो व्यक्ति स्त्रैण हो जाता है और हारमोन्स बदल जाते हैं वे आक्रामक एंग्रेसिव नहीं रहते ग्राहक हो जाते हैं ये महान आत्माएं विचारक नहीं बल्कि दृष्टा थीं कृष्ण दृष्टा थे, और ऐसे स्त्रैण थे कि उनके समान किसी को तलाश करना भी संभव नहीं हैं इसी प्रकार अपने सद्गुणों से अपने अच्छे विचारों से ही राम, कृष्ण, बुद्ध,महावीर जैसी महान आत्माओं के हारमोन्स बदल गये थे इसी लिए हमने उनके चित्र में कभी मूंछ-दाढ़ी नहीं देखीं
हम सबके पास भी उतना ही है जितना मीरा के पास था लेकिन हम झुकने की कला नहीं जानते हैं इस युग का मानव अपनी अकड़ में खड़ा है जबकि स्त्री भाव हुए बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता स्त्री होने से आशय नारी देह का होना नहीं है बल्कि इसका आशय समर्पण भव से है ।अगर देह (शरीर) स्त्री की भी हो और अंदर अकड़ हो तो वह पुरुषता हुई ।रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीर महिलाएं जो रण क्षैत्र में उतरीं उस समय वह स्त्री होकर पुरुष रुप में युद्धभूमि में आयीं थी उनके अन्दर की पुरुष भावना ने ही उनसे तलवार उठवायी थी डाकू बनी फूलन देवी में स्त्री भावना गौण और पुरुषता की अधिकता के कारण ही वह बंदूक उठा पायीं थी ऐसे ही यदि पुरुष का शरीर हो और अंदर अकड़ (अहंकार) हो तो वह स्त्रैणता ही कहलाएगी यह सभी भावना के चक्र में गुणों का फेरबदल है ।जो अहंकार के साथ अहंकार से रहित हमें स्त्री और पुरुष का भेद कराता है ।इसमें मुख्य बात सत्य ज्ञान तक पहुंचने पर बल दिया जाता है जिसका एकमात्र रास्ता स्त्रैणता से होकर जाता है
ध्यान का सम्बन्ध एकाग्रता से है ।एकाग्रता से आत्मशांति प्राप्त होती है ।धर्मों को जानाना तब तक अधूरा है जब तक एकाग्रता का समायोग हो अन्तर्मन की प्रासांगिक शांति एकाग्रता के रास्ते ध्यान से प्राप्त होती है ।रामकृष्ण परमहंस जैसे साध्य पुरुष ने एकाग्रता को चिंतन के रुप में शरीर पर हुई प्रतिक्रिया से जोड़ा है ।सखी संप्रदाय में एकमात्र भगवान को पुरुष के रुप में और बाकि सब स्त्रियों के 3प् में माने है।रामकृष्ण की अटूट साधना से उनके वक्षस्थल के उभरने और शरीर का स्त्री रुप् में रुपान्तरण ने एकाग्रता के महत्व को सिद्ध भी किया है ।उनकी साधना से उनका शरीर स्त्री का ,आवाज भी स्त्री की होगई यहां तक ही नहीं एकाग्रता ने जब पूरा जांर पकड़ा तो रामकृष्ण परमहंस को मासिक धर्म तक आने का विवरण हमें एकाग्रता की महिमा समझाता है
बुद्ध,महावीर,राम,कृष्ण की प्रतिमाएं गौर से देखने पर इनमें बड़ा स्त्रैण-माधुर्य है ।इनमें पुरुष का भाव प्रकट नहीं होता इसलिए तो इनकी दाढ़ी-मूंछ नहीं दिखाई गईं है ।क्या आपने कभी इनके चित्र दाढ़ी मूंछ वाले देखे हैं ? उनके हार्मोन्स बदल गए थे ,उनके अंदर जो जीवन था वह सदा युवा रहा ।आत्मा सदा युवा है बचपन,युवावस्था,वृद्धावस्था द्वारा इसमें केवल स्टेशन बदल जाते हैं ।यह स्त्रैण भाव है ।इससे यह सूचना मिलती है कि समर्पण होगा तो ऐसी स्त्रैण भव दशा में होगा और परमात्मा हमारे भीतर उतरेगा ध्यान - योग के द्वारा ध्यान के रुप में हमारे पास समस्त तालों की वह चाबी है , जिससे हम स्वंय के ,सहज में सम्पर्क में आने वालों के ,समाज के दुख अशांति दूर कर सकते हैं