(यह लेख जयपुर की ज्योतिष सागर पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है )
मूंछें पुरूषत्व की निशानी मानी जाती हैं । प्रारम्भिक काल में जिस पुरूष के मूंछें होती थी वह उन्हें बल दे देकर अपने बल का अभिमान किया करते थे । लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी पुरूषों के मूंछें हों । हमारा चेहरा हमारे भावों की प्ृष्ठभूमि है जो हमारे मन का दर्पण होता है और मूंछें उस पर अंकित पुरूषत्व भावना का एक चिन्ह । कई जातियों में मूंछें मर्दानेपन के सबूत के बतौर हैं बुद्ध, महावीर, कृष्ण व राम को मूंछें क्यों नहीं ?
भारत भूमि पर ये कुछ सिद्धि प्राप्त महापुरूष हैं जिनकी किसी भी तस्वीर में हमें मूंछें देखने को नहीं मिलती तो क्या ये पुरूष नहीं थे ? या इनमें पुरूषत्व की भावना निर्बल थी । मगर ऐसा नहीं है ये बड़े ही ज्ञानी व ध्यानी पुरूष रहें हैं । ज्ञान ही हमारे अस्तित्व का परम स्वरूप है । ध्यान उसी की तरफ एक-एक कदम चढ़ने का उपाए है । ध्यान ही ज्ञान की सीढ़ी है और भगवान को पाने के सारे मार्ग ध्यान के ही विविध रूप हैं । अतः मानव जीवन में ध्यान का विशेष महत्व है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने जप व तप का सहारा लिया । उन्हें दिव्यज्योति ज्ञान के पूर्ण होने पर ही प्राप्त हुई । मनुष्य का मन हर समय दौड़ता रहता है उसकी चंचलता को रोकना बड़ी मुश्किल बात है । लेकिन सिद्ध पुरूषों ने इसे कर दिखाया है ।
ध्यान के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति से इन महापुरूषों ने प्रसुप्त क्षमताओं को जगाया है और दिव्य शक्ति प्राप्त की है । प्रभु प्यास और निशब्द होकर ध्यान में नित्य दस मिनिट बैठना ही पूजा है, प्रार्थना है, जप-तप है । ध्यान के लिये कहा गया है कि अपने अंदर के चंचल मन की दौड़ रूकने का नाम ही ध्यान है । अंदर कोई गति न रहे, कोई प्रवाह न हो सब ठहर जाएं, जड़ हो जाएं सारे कंपन खत्म हो जाएं तो मनुष्य उसी क्षण परमात्मा हो जाए । यहां ध्यान ही क्योंकि ज्ञान की सीढ़ी है अतः इसे समझना भी जरूरी है । जितने भी अभी तक ज्ञानी हुए हैं उन्होंने ध्यान का ही रास्ता अपनाया है ।
ध्यान से ज्ञान की क्षमता बढ़ते-बढ़ते ज्ञानी हो जाते हैं और उनका चित्त स्त्रैण हो जाता है । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह स्त्रियां हो जाएंगें ।स्त्रैण का अर्थ है - ध्यान एवं ज्ञानी का चित्त एग्रेसिव की जगह रिसेप्टिव हो जाता है । आक्रामक की जगह ग्राहक बन जाते हैं और ऐसी स्थिति ग्राहकता तभी होती है जब कोई साधक परमात्मा के लिए अपने भीतर के द्वार खोल पाता है । अतः ऐसे साधकों का मन स्त्री के कोमल गुणों को प्राप्त होता है । कृष्ण ने अर्जुन से बार-बार कहा है कि तू लड़, इसलिए नहीं कि कृष्ण युद्धप्रिय व्यक्ति थे । बल्कि बात यह थी कि कृष्ण से ज़्यादा स्त्रैण चित्त का व्यक्ति खोजना बहुत ही मुश्किल था । इस पर सोचने में आता है कि अगर कृष्ण अर्जुन के रथ के बजाय भीम के रथ पर सार्थी बनकर बैठ गये होते तो क्या होता ? क्या गीता का जन्म होता ? क्योंकि भीम इतने आतुर व उतावले थे कि कृष्ण से कहते-‘ जल्दी रथ आगे बढ़ाओ मैं अभी इन चाचा ताऊओं की चटनी बना देता हूं, तब कृष्ण की हालत क्या होती ? कृष्ण स्वयं ही कहते - भैया क्षमा करो , यह युद्ध ठीक नहीं है ।’ और गीता पैदा ही न होती । इस संसार में सब का चुनाव करना पड़ता है कि क्या कम बुरा है और क्या अधिक बुरा ।
ध्यान योग यह निश्चित रूप से बताता है कि अशांति हटी,दृष्टा हुए या शांत हो गए तो व्यक्ति स्त्रैण हो जाता है और हारमोन्स बदल जाते हैं । वे आक्रामक एंग्रेसिव नहीं रहते ग्राहक हो जाते हैं । ये महान आत्माएं विचारक नहीं बल्कि दृष्टा थीं । कृष्ण दृष्टा थे, और ऐसे स्त्रैण थे कि उनके समान किसी को तलाश करना भी संभव नहीं हैं । इसी प्रकार अपने सद्गुणों से अपने अच्छे विचारों से ही राम, कृष्ण, बुद्ध,महावीर जैसी महान आत्माओं के हारमोन्स बदल गये थे इसी लिए हमने उनके चित्र में कभी मूंछ-दाढ़ी नहीं देखीं ।
हम सबके पास भी उतना ही है जितना मीरा के पास था लेकिन हम झुकने की कला नहीं जानते हैं । इस युग का मानव अपनी अकड़ में खड़ा है जबकि स्त्री भाव हुए बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता । स्त्री होने से आशय नारी देह का होना नहीं है । बल्कि इसका आशय समर्पण भव से है ।अगर देह (शरीर) स्त्री की भी हो और अंदर अकड़ हो तो वह पुरुषता हुई ।रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीर महिलाएं जो रण क्षैत्र में उतरीं उस समय वह स्त्री न होकर पुरुष रुप में युद्धभूमि में आयीं थी । उनके अन्दर की पुरुष भावना ने ही उनसे तलवार उठवायी थी । डाकू बनी फूलन देवी में स्त्री भावना गौण और पुरुषता की अधिकता के कारण ही वह बंदूक उठा पायीं थी । ऐसे ही यदि पुरुष का शरीर हो और अंदर अकड़ (अहंकार) न हो तो वह स्त्रैणता ही कहलाएगी । यह सभी भावना के चक्र में गुणों का फेरबदल है ।जो अहंकार के साथ व अहंकार से रहित हमें स्त्री और पुरुष का भेद कराता है ।इसमें मुख्य बात सत्य व ज्ञान तक पहुंचने पर बल दिया जाता है जिसका एकमात्र रास्ता स्त्रैणता से होकर जाता है ।
ध्यान का सम्बन्ध एकाग्रता से है ।एकाग्रता से आत्मशांति प्राप्त होती है ।धर्मों को जानाना तब तक अधूरा है जब तक एकाग्रता का समायोग न हो । अन्तर्मन की प्रासांगिक शांति एकाग्रता के रास्ते ध्यान से प्राप्त होती है ।रामकृष्ण परमहंस जैसे साध्य पुरुष ने एकाग्रता को चिंतन के रुप में शरीर पर हुई प्रतिक्रिया से जोड़ा है ।सखी संप्रदाय में एकमात्र भगवान को पुरुष के रुप में और बाकि सब स्त्रियों के 3प् में माने है।रामकृष्ण की अटूट साधना से उनके वक्षस्थल के उभरने और शरीर का स्त्री रुप् में रुपान्तरण ने एकाग्रता के महत्व को सिद्ध भी किया है ।उनकी साधना से उनका शरीर स्त्री का ,आवाज भी स्त्री की होगई यहां तक ही नहीं एकाग्रता ने जब पूरा जांर पकड़ा तो रामकृष्ण परमहंस को मासिक धर्म तक आने का विवरण हमें एकाग्रता की महिमा समझाता है ।
बुद्ध,महावीर,राम,कृष्ण की प्रतिमाएं गौर से देखने पर इनमें बड़ा स्त्रैण-माधुर्य है ।इनमें पुरुष का भाव प्रकट नहीं होता इसलिए तो इनकी दाढ़ी-मूंछ नहीं दिखाई गईं है ।क्या आपने कभी इनके चित्र दाढ़ी मूंछ वाले देखे हैं ? उनके हार्मोन्स बदल गए थे ,उनके अंदर जो जीवन था वह सदा युवा रहा ।आत्मा सदा युवा है । बचपन,युवावस्था,वृद्धावस्था द्वारा इसमें केवल स्टेशन बदल जाते हैं ।यह स्त्रैण भाव है ।इससे यह सूचना मिलती है कि समर्पण होगा तो ऐसी स्त्रैण भव दशा में होगा और परमात्मा हमारे भीतर उतरेगा ध्यान - योग के द्वारा । ध्यान के रुप में हमारे पास समस्त तालों की वह चाबी है , जिससे हम स्वंय के ,सहज में सम्पर्क में आने वालों के ,समाज के दुख व अशांति दूर कर सकते हैं ।
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बहुत ही सुन्दर स्पष्टीकरण. आभार.
ReplyDeleteWah....nayi baat..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है ... ज्योतिष सागर का प्रकाशन अभी भी हो रहा है क्या ?
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रूप से आपने व्याख्या किया है! आपकी जितनी भी तारिफ़ की जाये उतना ही कम है! मै आपका ब्लोग रोज़ाना पड्ती हू और बहुत आनन्द प्राप्त करती हू!
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteachchha vishleshan hai. sateek kaha hai, samarpan se hi paramatma milte hain.
ReplyDeleteबडा गम्भीर विवेचन किया है आपने। आभार।
ReplyDelete----------
जादू की छड़ी चाहिए?
नाज्का रेखाएँ कौन सी बला हैं?
Bahut khoob...Padh ke achha laga...
ReplyDeletethis is a great.
ReplyDeleteyebaat hamare samaj or hamare desh ke liye ek nayee kranti laa sakti he!
Dhanyawad
मुझे लगता है रचना जी कि मैं आपकी शंका का समाधान कर सकता हूं। भारत में मूर्ति कला की बाजाप्ता शुरुआत कनिष्क के जमाने में बौद्धसभा के बाद हुई थी। नागार्जुन और अश्वघोष की अध्यक्षता में हुई बौद्धसभा में बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार घोषित किया गया था और उनको भगवान का दर्जा देकर उनकी पूजा करने का निर्णय लिया गया था। यह अनिश्वरवादी बौद्ध दर्शन में ब्राह्मणवाद की धुसपैठ का राजकीय प्रयास था। इस निर्णय के बाद गांधार से मूर्तिकार बुलाए गए थे। उन्होंने सूर्यपुत्र अपोलो की अनुकृति करते हुए कुछ रद्दो-बदल के साथ बुद्धमूर्ति बनाई थी। बाकी देवताओं की मूर्तियां भी इसी तर्ज पर बनाई गई थीं। उसी जमाने में मथुरा में भी एक मूर्तिकला विकसित हुई थी जिसे मथुरा शैली कहते हैं। यह मूर्तियां लाल पत्थर की हैं जबकि गांधार शैली की मूर्तियां काले पत्थर की हैं। मथुरा शैली की बुद्धमूर्ति में बुद्ध की जटाएं हैं और दाढ़ी-मूंछें भी हैं। इसी तरह अन्य देवताओं का स्वरूप है। आप किसी म्युजियम में गौर रें तो दोनों शैलियों की मूर्तियों के बीच अंतर को देख सकती हैं।
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