Thursday, August 6, 2009

भारतीय नारी (राजस्थान साहित्य अकादमी की मधुमती पत्रिका मई 2009 में प्रकाशित)

एक सब्ज़ीवाली नित दोपहर मालती के घर की कालबैल बजाती।
‘‘बीवीजी! कुछ सब्ज़ी लेंगीं ?’’
मालती-‘‘नहीं! अभी नहीं चाहिए।’’
सब्ज़ीवाली-‘‘कुछ तो ले लो, हम दो कोस चलकर यहां आतीं हैं सब्ज़ी बेचने के वास्ते। अच्छा न लेयो तो पानी ही पिलाय देओ।’’
मालती पानी देते हुए-‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
सब्ज़ीवाली-‘‘दुलारी!’’
अब तो रोज़ का सिलसिला हो गया, दुलारी थकी मांदी आती और अपना स्टापेज़ समझ कुछ देर विश्राम करती। इस दौरान अपने छोटे बड़े किस्से सुनाती। अक्सर कभी उसकी आंख सूजी होती, तो कहीं नील पड़ी होती। कभी कभी तो उससे चला भी नहीं जाता इतनी चोट लग जाती। पूछने पर कहती उसका पति शराब पीकर उससे दिनभर की कमाई छीन लेता है। कुछ घर खर्च के लिए रख लेती और नहीं देती, तो मारता है। एक दिन दुलारी के आने का समय गुज़र गया और वह नहीं आयी अभी यह सोच ही रही थी कि मोड़ पर कुछ शोर सुना। शायद कोई औरत बेहोश हो गई थी। बाहर जाकर देखा तो दुलारी ही थी। खैर! उसे घर लायी और पानी पीने को दिया तो कहने लगी-‘‘नाहीं बीवीजी! आज हमार करवा चौथ कोउ व्रत हैगा, हमने पानी की एकहुं बूंद सुब्बे से नाहीं लेईं। तबहीं तो हम बेहोस हो गईं।’’
मालती ने कहा-‘‘तू तो पेट से है न ? फिर इतना सख्त व्रत ?’’
दुलारी-‘‘का करें आखिर भरतार के लिए सबहीं करना पड़ता है।’’