Sunday, September 13, 2009

यज्ञों से होती है वर्षा (जयपुर की ज्योतिष सागर पत्रिका में प्राकाशित)


वर्तमान में हमें अकाल जैसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ रहा है । आज हम वर्षा ऋतु के पानी पर ही निर्भर हैं, जबकि पूर्वोत्तर काल में ऋषि मुनियों द्धारा यज्ञादि शक्तियों का सहारा लेकर भी वर्षा करायी जाती थी । प्राचीन समय में प्रत्येक धर में नियमानुसार यज्ञों का प्रचलन था । भौतिकता के इस युग में विशिष्ट आयोजनों पर ही यज्ञों का प्रचलन सीमित रह गया है । हाल ही में बोरखेड़ा में संत कौशिक महाराज द्धारा यज्ञों का आयोजन कर वर्षा कराये जाने की महत्वता पर बल दिया । उन्होने यज्ञ वेदी की अग्नि को देवताओं का मुख व उसमें दी गई । आहुति को प्रत्यक्ष रुप से उनका भोजन माना , जो वायु में मिलकर प्राणी मात्र तक पहुंचता है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यज्ञ वात विज्ञान से जुड़ा है । वेदों ने भी इसकी पुष्टि की है । ”शनो वात: पवतां “शं नस्तपतु सूर्य: ”शं न: कनिक्रदद्धेव पर्जन्यो अभिवर्षतु ।। वेद के उपरोक्त मंत्र में अच्छी वर्षा के लिये कल्याणकारी वायु के चलने का उल्लेख है। किस प्रकार की वायु से मेघों की उत्पत्ति होगी, किस प्रकार की वायु से मेघों का विनाश होगा,किस प्रकार की वायु से मेघ बरसेगें, यह वर्षा संबंधी वात ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। वेद ने वात ( वात्र वायु + त त्र ताप ) त्र ( वायु+ताप ) त्र तापित वायु को मेघ का मूल उद्गम बताते हुए कहा है-‘वाताय स्वाहा, घूमाय स्वाहा,अभ्राय स्वाहा,मेघाय स्वाहा’ अब प्र”न यह उठता है कि मेघ कैसे बनते हैं। भौतिक अग्नि में कि्रया करने से,उसमें द्रव्यों की आहूति देने से अथवा सूर्य के ताप से ,तपित वायु घूम से ( युक्त ‘जलीय वाष्प को धारण करने वाली ) होकर अभ्र स्थिति को प्राप्त होती है और वही मेघ बनती है। ऐसी स्थिति में वात का ज्ञान इस का्र्य लिये आवश्यक है। पूर्वो भ्रजननो वायुरितरो भ्र विनाशन:। उत्तरो वृष्टिजनको वर्षत्येव च दक्षणि: ।। पूर्व की हवा बादल और वर्षा लाती है। पशिचम की हवा मेघ एवं वृष्टि का नाशक हैं। उत्तर की हवा वृष्टि को उत्पन्न करके बरसाती ही है, और दक्षणि की हवा केवल हवा ही चलती है परन्तु वृष्टि नहीं कराती। अत: पूर्व और उत्तर की वायु ही वृष्टि कार्य के लिये शं वात:’-सुखकारी वात है। यह शं वात:भी भावक ,स्थापक एवं ज्ञापक भेद से तीन प्रकार की होती है। भावक से बादल उत्पन्न होते हैं। स्थापक से बादल स्थित होते हैं। और ज्ञापक वायु से आने वाली वृष्टि का पहले से ही ज्ञान होता है। हर वायु सुखकारी नहीं होती, जैसे दक्षणि,नैऋत्य एंव वायव्य कोण की वायु मेघों का नाश करने वाली होने से श वात:’ नहीं है। बादलों में शोष वायु के उत्पन्न होने पर बादलों की स्निग्घता नष्ट हो जाती है। वे फटे-फटे रूक्ष से,बिखरे से हो जाते हैं और वर्षा नहीं होती। यदि अन्य प्रबल कारणों से वर्षा का योग हो भी जाये तो वायु की प्रचण्डता से थोड़ी ही वर्षा होती है या वह वायु जल शोषण करने से अल्पवृष्टि की हो जाती है। इसी प्रकार -शं नस्तपतु सूर्य:-के अनुसार जब सूर्य की तपन विशेष होती है तो वर्षा शीघ्र ही हो जाती है। वेद में - स्वाहा सूर्स्यय रश्मये वृष्टि वनये - अर्थात सूर्य की वे रश्मियां जो वृष्टि लाती हैं,उनके लिये कि्रया हो। इससे स्पष्ट है कि जब सूर्य की रश्मियों का वृष्टि कराने में ताप की विशेष रूप से क्रियाशीलता होती है तो वृष्टि दूर-दूर तक होती है। इसलिए वर्षा ऋतु में जिस दिन सूर्य अत्यन्त प्रखर और असहाय ताप देने वाला हो और घृत के वर्ण के सदृश्य प्रभा वाला हो तो उस दिन वर्षा अवश्य होती है। इसी प्रकार -शं न: कनिक्रदद्धेव पर्न्यज:’ जब मेघ अपनी शुभ लक्षणयुक्त गर्जना करते हैं तब भी दूर-दूर तक वर्षा होती है। यह गर्ज़ना विद्युत स्फुरण से होती है अत: वर्षा के लिये विद्युत ज्ञान की आवश्यकता है। लोगों का मानना है कि वर्षा कराना मानवकृत प्रयत्नों से संभव नहीं है, यह तो प्रकृति के ही आश्रति है लेकिन ऐसा नहीं है, थोड़ा सोचने पर कि कैसे प्राकृतिक कारणों से नदी अपना मार्ग बना लेती है यदि हम भी नहरें आदि अपनी बुिद्ध एंव पुरूषार्थ के बल से बनायें तो नदियों का जल उन मार्गों से भी बहने लगेगा। इसी प्रकार वर्षा एक विज्ञान है जिसे समझ कर प्रकृति को अनुकूल बनाकर वर्षा भी कराई जा सकती है। जिससे देश की प्रजा सुखी एंव समृद्ध हो सकती है। प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिये यज्ञ का सहारा लेना पड़ता है,जो सतयुग से चला आ रहा है । भगवान राम भी यज्ञादि द्धारा शक्ति अर्जन करते थे। इसके लिये इस मंत्र का प्रयोग किया जाता है- ‘भूमि पर्जन्या जिवन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नम:’। इसका अर्थ है भूमि को वर्षा के द्धारा मेघ तृप्त करते हैं और द्युलोक को तृप्त किया जाता है, और वर्षा सम्पन्न करायी जाती है। कहते हैं मेघ यानि बादल वर्षा लाते हैं लेकिन ये भी तीन प्रकार के होते हैं- अग्निज,अनि्रज एंव दिव्य मेघ । मेघ से वर्षा पृथ्वी पर आती है और अग्नि के द्धारा पृथ्वी का जल ताप से वाष्पमय होकर, गर्म वायु के साहचर्य से और वहां के ताप से अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है। पृथ्वी पर से हुइZ इस कि्रया से उत्पन्न मेघ अग्निज है। आकाश,नक्षत्र और ग्रहों के योग से उत्पन्न होने वाले मेघ दिव्य हैं। तीनों प्रकार से उत्पन्न मेघों का स्थान अन्तरिक्ष ही है अत: एक प्रकार की मेघों की वर्षा से दूसरे प्रकार की मेघों में भी वर्षा कि्रया आरम्भ हो जाती है । जिसे बच्चों को सिखाते हैं, दो बादलों के टकराने से वर्षा होती है । अब यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी स्थिती आ जाये कि पूवोZक्त तीनों प्रकार के मेघों का निमाZण यथोचित न हुआ हो या अनेक प्रकार के दोषों के कारण अवर्षा ( अकाल ) की स्थिति आ जाये तो यज्ञ के द्धारा मेघों का निर्माण करके इसके साहचर्य से उन मेघों को भी बरसाया जा सकता है । यज्ञ द्धारा उत्पन्न ये मेघ पर्जन्य भी कहलाते हैं । हमारे प्राचीन ऋषि मुनि यज्ञ द्धारा ही मेघों को उत्पन्न करते थे ।वैदिक यज्ञ विज्ञान की क्रियाओं के आधार पर मेघों एंव वर्षा पर नियन्त्रण सरलता से स्थापित किया जा सकता है । वर्षा का संबंध केवल वर्षा के ही बादलों एंव मानसून पर आधारित नहीं है बल्कि शेष वर्ष में जो स्थिति अंतरिक्ष, वायु, विद्युत, नक्षत्र, चंद्र,सूर्य एंव बादलों की होती है ,उसपर भी प्रमुख रूप से आधारित है ।

3 comments:

  1. हाँ यज्ञ वर्षा के लिए विज्ञान दृष्टि में योगदान करते हैं
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    Carbon Nanotube As Ideal Solar Cell

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  2. kritim varsha karane ko to vigyan bhi manata hai

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  3. यदि यज्ञों से वर्षा संभव है तो थार का मरुस्‍थल में वर्षा क्‍यों नहीं कराई जाती?

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