Thursday, March 19, 2009
उधार का मातृत्व - अखिल भारतीय साहित्य परिषद ,राजस्थान द्वारा हिन्दी कहानी प्रतियोगिता २००८ मे पुरुष्कृत कहानी
अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा आभूतपूर्व मुख्यमंत्री हिमाचल श्री शांता कुमार एंव भूतपूर्व शिक्षा मंत्री राजस्थान श्री घनश्याम तिवाड़ी से पुरुष्कार प्राप्त करते श्रीमती रचना गौड़ ’ भारती ( दिनांक 22.02.2009)
कहानी
शालिनी बगीचे में टहल पौधों की पीली पत्तियांे को हटा मिट्टी की सफाई कर रही थी। सुबह-सुबह ये उसकी दिनचर्या में शामिल था। वैसे भी इतने बड़े घर में उसके पति निशांत और वह, दो ही तो लोग थे। घर के काम के लिए 14-15 साल का एक लड़का पन्ना रखा हुआ था। इम्पोर्ट एक्सपोर्ट करने वाली एक बड़ी कम्पनी का मालिक था निशांत। व्यावसायिक सम्पन्नता पूरे ठाठ बाट पर थी। उसकी जिन्दगी से यह प्रदर्शित था।
शालिनी के कुछ शौक थे जैसे म्यूज़िक, फिल्में, बागवानी और खेलकूद। बचपन से ही खेलप्रिय शालिनी छोटे-छोटे बच्चों के साथ बड़ी दिलचस्पी से खेलती थी। इनडोर व आउटडोर दोनों तरह के खेल उसे पसन्द थे। खाली बैठे इतने बड़े घर में दिन काटना भारी था। अतः उसने अपने शौक में से बागवानी को चुनकर उसे समय देना शुरू किया। उसे तरह-तरह के पौधों का शौक हो चला। जब भी वह बगीचे में होती पूरी तरह डूब जाती थी पौधों में। एक-एक पत्ता चुनना, गुड़ाई करना, खाद मिलाना, बेतरतीब बढ़ी टहनियों को सुनिश्चित आकार में काटना छांटना उसका मनपसंदीदा कार्य था।
उसने घर के कोने-कोने को बोनज़ाई, कैक्टस, सदाबहार, गुलाब और न जाने विभिन्न किस्मों के पौधों से सजाया हुआ था। अभी कुछ ही दिन हुए थे, बड़े ही चाव से वह इंग्लिश गुलाब में केसरिया व पीला गुलाब लायी थी। पहली बार आज केसरिया गुलाब का फुटान हुआ और एक नई कली भी नज़र आयी। यह देखते ही वह मन ही मन बुदबुदाई-‘‘वाह रे प्रकृति! तेरी लीला अनोखी है।’’
उसकी इस सोच ने अनवरत रूप से जो गति पकड़ी वह तरंगित हो कहां से कहां जुड़ गई। सहसा ही उसे अपने अपरिपूर्ण होने का आभास हो आया। उसकी सूनी गोद और सूना आंगन धीरे-धीरे बढ़कर जिन्दगी को सूना कर रहे थे। प्रकृति में भी पौधे फुटान ले नया गर्भ धारण करते हैं, कलियां मधुपों के संसर्ग से चटखती हैं और पूरा मधुबन गुलों से गुलज़ार हो उठता है। ‘‘मेरा मधुबन क्यों सूना है ? न जाने कब गुलज़ार होगा?’’ सोचते हुए शालिनी उन चिरपरिचित स्मृतियों में खो गई जो महज़ ख्वाब का रूप धारण कर अधूरी ही रहीं।
बचपन से ही गुड्डे गुड़ियों से खेलना हर लड़की में मातृत्व की प्रतिबिम्बित मूर्ति होती है। खेल-खेल में ख्वाबों का बनाया उसका घर, सोच के अनुरूप बच्चे समान गुड्डे व गुड़िया का नवरूप बनाता है। अपने बालपन से ही मातृत्व का अहसास होने लगता है तभी तो गुड़ियों को नहलाना, खिलाना-पिलाना, सजाना और अन्य क्रियाएं उसे कर्तव्यबोध से बांध देतीं है। एक अनोखा अहसास किसी के जीवन को बनाने का, अपनी मां का प्रतिबिम्ब बनने का, यह संस्कार के अंतर्गत सम्मिलित होता है। जैसे मां हमें उठातीं हैं, उसी प्रकार हम गुड़िया को उठाते हैं। ये अनवरत क्रियाएं सदियों से पारंपरिक रूप में चली आ रही हैं। शालिनी में भी इस मातृबोध का स्फुटन हुआ था।
समयानुसार बदलाव तो सब में आता है। शादी होने के तीन साल बाद तक बच्चे का न होना शालिनी की बेचैनी व अधीरता के लिए काफी था। वह जहां जाती लोग पूछते-‘‘शालू! खुशखबरी कब सुना रही है?’’ शालिनी खिसियाहट में संक्षिप्त उत्तर देती-‘‘वक्त आने पर।’’ फिर अनायास ही उसके मुंह से निकल जाता-‘‘पता नहीं वक्त कब आएगा?’’ शायद लोगों को जवाब देते-देते वह स्वयं को भी यही कहकर समझाने लगी थी।
शालिनी महिला मण्डल की सदस्या थी। इस नाते साल में छोटे-बड़े मौकों पर उसे महिला मण्डल के प्रतिनिधि के रूप में अपनी हाजरी चैरेटेबल ट्रस्ट व अनाथालय जैसी संस्थाओं में लगानी पड़ती थी। शालिनी के पति उसे शाॅपिंग के लिए पैसे देकर, गाड़ी शौफर के साथ देकर अपने पतिधर्म की इति समझते थे।
यूं ही एक रोज़ अनाथालय में शालिनी की नज़र एक रूई सी सफेद गुड़िया जैसी लड़की पर पड़ी। जो अनाथालय के बीचों बीच लगे बहुत बड़े नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी थी। शालिनी अपने आपको रोक नहीं पाई। अपना पर्स चबूतरे पर रखकर वहीं उसके करीब बैठ गई। उसने पूछा-‘‘तुम्हारा क्या नाम है बेटा?’’
‘‘भावना!’’ बड़ी सहजता से उत्तर दे वह चुप हो गई। उसकी आंखों में क्षितिज़ की दूरियां, समदंर की गहराई और एक अजीब सी खामोशी समाई थी। शालिनी ने बात करने के उद्वेश्य से कहा-‘‘बहुत प्यारा नाम है।’’ इस पर वह कुछ नहीं बोली। उसे देखकर ‘भावना’ शब्द भाव प्रधान न लगकर ‘भावना’ का अर्थ उसके लिए भाव-ना अधिक दृष्टिगोचर हो रहा था।छोटी सी उम्र में मां बाप के प्यार से वंचित अबोध मन क्या कुछ नहीं सहता। यही वजह होगी जो उसमें इतनी नीरवता आ गई। उसकी उम्र के यही कोई 5-6 साल के बच्चे कितना चटर-पटर बोलते हैं। इसकी खामोशी का दर्द शालिनी को आंतरिक वेदना से परेशान कर गया। उसी क्षण उसने अपनी ममता से उसमें प्यार का नवांकुर पैदा करने का सोचा।
कार्यालय की औपचारिकताएं पूरी करते-करते कब सांझ हो गई पता ही न चला। शालिनी जल्दी से घर के लिए रवाना हुई। शारीरिक रूप से थकी परन्तु मानसिक रूप से उद्विग्न शालिनी विचारों के भंवर में उलझी मशीनीकृत हो रात के खाने की तैयारी में जुट गई। आज जितना निशांत का इंतज़ार वह कर रही थी, उतनी ही देर उसे आने में लग रही थी। मानो सारी इन्द्रियों का समायोजन श्रवणेन्द्री पर हो गया हो।
‘‘हर आहट हो ऐसी कि हर आहट पर दम निकले.....’’ पंक्ति शालिनी के ऊपर सही बैठ रही थी। उसकी ममता के सागर और रेत पर तड़पती मछली का फासला निशांत के आने पर तय होना था। इंतज़ार..........इंतज़ार..............और इंतज़ार।
पोर्टिको में घुसती हुई कार के हाॅर्न ने शालिनी की मृतप्रायः काया में बिजली की हरकत भर दी। लपक कर उसने दरवाज़ा खोला-‘‘बड़ी देर कर दी ?’’ हाथों में पकड़े चार्ट, कुछ फाइलें व फिसलते हुए ब्रीफकेस को संभालने की कोशिश में लगा निशांत बोला-‘‘काम की मसरूफियत में वक्त का पता नहीं चला।’’ दोनों साधारण सी बातचीत के साथ अपने कमरे में आ गए। निशांत तुरंत बाथरूम में फै्रश होने घुस गया और शालिनी खाना लगाने किचेन में।
नाइटसूट पहन डाइनिंग टेबल पर बैठते हुए निशांत बोला-‘‘अब बता ही दो क्या बात है ? तुम्हारे चेहरे का ज्योग्राफिया बता रहा है कि तुम कुछ बताने के लिए बेताब हो।’’
‘‘जब समझ ही रहे थे, तो इतना इंतज़ार क्यों करवाया ?’’
‘‘भई! इत्मीनान से सुनना चाहता था।’’
खाना परोसते हुए शालिनी ने कहा-‘‘आज मैं अनाथालय में एक ऐसी मासूम सी बच्ची से मिली। सच! निशांत उसमें एक अलग ही बात है। उसकी आंखों में बड़ा खिंचाव है।’’
‘‘तो ?’’ लापरवाही से जवाब के साथ निशांत खाना खाने लगा।
‘‘तो क्या निशांत, मैं चाहती हूं हम उस बच्ची को गोद ले लें।’’
‘‘पागल हुई हो ? घर वाले क्या कहेंगें और अभी हमारी शादी को साल ही कितने हुए हैं ? वक्त का इंतज़ार करो। अपना खून अपना ही होता है और पराया.......पराया।’’
शालिनी का दिल बुझ गया उससे खाना भी नहीं खाया गया। उसकी थाली ऐसी ही भरी थी, कटोरियां भरी हुई थीं और अब आंखें भी भर आयीं। निशांत हाथ धोकर नेपकिन से पोंछता हुआ-‘‘ डोन्ट बी सिली डार्लिगं। प्लीज़ ट्राई टू अण्डरस्टैण्ड मी।’’ कहते हुए उसका कंधा थपथपाकर बैडरूम में दाखिल हो गया। शालिनी टेबल पर अभी तक जड़वत् बैठी रही। उसके जहन में काॅलेज़ में पढ़ी वो पंक्तियां आ गईं-‘‘अबला जीवन हाय! त्ुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध आंखों में पानी।’’
सभी काम निपटा शालिनी जब बैडरूम में आई तो थकान से चूर निशांत तब तक सो चुका था। वह भी करवट ले सो गई। दिन यूं ही गुज़रते गए वह भावना से मिलने यदा कदा अनाथालय जाती। कभी कुछ सामान ले जाती तो कभी कोई खिलौना। हर हते एक पूरा दिन शालिनी भावना के साथ रहने लगी। उन दोनों में इतना गहरा रिश्ता कायम हो गया कि लोग शालिनी को उसकी मुंहबोली मां कहने लगे। भावना भी उसका इंतज़ार आतुरता के साथ करती। शालिनी ने एक दिन वहां की संयोजिका से मिलकर भावना की पढ़ाई लिखाई, उसके सारे खर्चें का भार अपने ऊपर ले लिया। शालिनी पैसा खुले रूप से खर्च कर सकती थी यहां उस पर कोई रोक नहीं थी। भावना बड़ी होने लगी दिन यूं ही बढ़ते रहे। शालिनी की बागवानी ही उसके ज़ख्मों का मरहम बनी रही। हर स्फुटित कली उसे अंदरूनी तौर पर आहत कर जाती थी। निशांत इन तमाम वेदनाओं से अंजान अपने बि़ज़नेस में व्यस्त रहा।
एक दिन शीशे के सामने बैठी शालिनी ने अपने बालों में आयी सफेदी देख भवना के बारे में सोचा जो अब बड़ी हो चुकी थी। शालिनी ने उसे शहर के अच्छे काॅलेज़ में दाखिल करवा दिया था। अब उनका मिलना जुलना भी पढ़ाई बढ़ जाने के कारण कम होने लगा था। देखते ही देखते डिग्री पूरी कर भावना की शादी की बात चलाई जा रही थी। शादी के समूचे खर्च की जिम्मेदारी शालिनी पर ही थी।
उस एक पत्र ने शालिनी की जीवन भर की तपस्या का फल दे दिया था। उसके रोम रोम से ममता फूट रही थी। मन मानो आकाश से ज़मीन पर आने का नाम ही न ले रहा था। पत्र में अनाथालय की संयोजिका ने उसे विवाह का निमंत्रण देने के साथ ही कन्यादान की जिम्मेदारी भी दी थी, क्योंकि भावना उसे ही मां कहती थी।
आज भावना के फेरे हैं। शालिनी कन्यादान करेगी। वक्त पर पहुंच कर सारा कार्यक्रम कुशलपूर्वक निपटा शालिनी ने आखिरकार भावना को विदा किया। दोनों मां बेटी फूट-फूटकर रोतीं रहीं। शायद दोनों एक दूसरे का ऋण चुका रहीं थीं। आज शालिनी अपनी पूर्णता महसूस कर रही थी, एक मां का फर्ज़ पूरा करके। उसका घर आंगन खाली था तो क्या ममता तो बेशुमार थी जिसने उसे परिपूर्ण बनाया। आज अविरल रूप से ममता आंखों से बह रही थी। जीवन से कोई गिला न बाकी था। गर्व था तो उसे ममता का, जिसे उसने वंश का दंश न बनने दिया। इस प्रकार मातृसुख ने दी सम्पूर्णता उसे।
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आपको बहुत बधाई। पत्रिका का नवीन अंक मिल गया था, अच्छा निकला है।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई..उम्दा कथा.
ReplyDeleteबधाई..
ReplyDeletebahoot achchi kahani haiरचना गौड़ ’ भारती ji isi tarah likhati rahe
ReplyDeleterajna ji.............dilli mubarakbad....mamtav par bahut accha likha aapne....keep it up...Nazim Beri.
ReplyDeleteaap achi kahani likhti hain. muje aapki rachna pasand aayi
ReplyDeletenice emotional story...
ReplyDeletehirdya sparsi lekh....sankar-shah.blogspot.com
ReplyDeletethanks rachna g, ye to suruwat hai. door tak jaana hai. aapko accha lha. muge b khusi hui
ReplyDeleteबहुत बधाई,उम्दा लेखन .
ReplyDeleteAapko badhaaee deneke siwa, aur kuchh kehna, soorajko raushnee dikhane jaisa hoga...
ReplyDeletePadhtee rehtee hun, aapke lekhanko lekin tipanee se denese sankoch kartee rahee.
aadarsahit
shama
रचना जी, एक प्रेरणादायी कहानी पर पुरस्कृत होने के लिए आपको ढेर सारी बधाईयां.
ReplyDeleteउदंती.com मेरी मासिक पत्रिका है. जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है. इसमें समाज के जुड़े ज्वलंत मुद्दों के साथ कला,संस्कृति पर्यावरण, पयर्टन के साथ साहित्य का कुछ अंश भी प्रकाशित होता है. अब तक इसके आठ अंक प्रकाशित हो चुके हैं इनका अवलोकन आप www.udanti.com पर कर सकती हैं। कविताएं चूंकि इस समय कई अंकों की इकट्ठी हो गईं हैं अतः आप लघु कथा या आप जो ठीक समझे भेज सकती हैं. आपके ब्लाग में मैंने कविताओं के अलावा कहानी, लेख एवं लघुकथा देखे हैं। आप चाहें तो किसी विषय पर विचारात्म लेख अथवा दो- तीन लघु कथाएं भेज सकती हैं।
शुभकामनाओं के साथ
-रत्ना