Thursday, March 12, 2009
क्या है - यह होली का त्यौहार
होली बड़ा पुराना त्यौहार है । यह फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है । कई पुराणें और साहित्य ग्रंथों में भी इसके मनाये जाने के विस्तृत वर्णन मिलते हैं । इस त्यौहार के आगमन से मनुष्य, जीव-जन्तु यहां तक कि प्रकृति भी राग-रंग से हर्षोल्लासित हुए बिना नहीं रहती । इस त्यौहार में धार्मिक कृत्यों, पूजा-पाठ और विधि-विधान के साथ गाने बजाने, अबीर-गुलाल उड़ाने, खाने पीने और हर एक से सदभाव के साथ गले मिलने का सामूहिक उत्साह प्रतिबिम्बित होता है । नए वर्ष के आगमन स्वरूप माना जाता है - होली ।कहा जाए तो सम्पूर्ण धरती रंगों व रागों से सराबोर करने वाला त्यौहार है, जिसका नाम होली ऐतिहासिक व प्रासांगिक घटना के फलस्वरूप रखा गया ।
होलिका की प्रासांगिक घटना:- होली का पर्व प्रह्लाद और उनकी बुआ होलिका से सम्बन्धित घटना की स्मृति में मनाया जाता है । प्रह्लाद एक बड़े प्रतापी व अहंकारी प्रजाभक्त एवं स्वयं को ईश्वर से बड़ा समझने वाले राजा हिरण्यकश्यप का बेटा था । हिरण्यकश्यप अपने अहंकारी राजत्व को परम्परा में ढालना चाहता था अतः उसकी अपेक्षा प्रह्लाद से भी यही थी । मगर सृष्टा का चमत्कार ही था कि अहंकार के बीज में से आस्तिक व ईश्वरीय शक्ति को मान्यता देने वाले प्रह्लाद का जन्म हुआ । हिरण्यकश्यप अपने पुत्र की इस विचारधारा से असहमत तो था ही इसके साथ उसने अपने पुत्र को डरा धमका कर पथभ्रष्ट करने के विभिन्न तरीके भी अपनाए । अंततः वे नाकामयाब ही रहा और उसने पुत्र के प्राण हरने का फेसला कर डाला । इस षडयंत्र में उसने अपनी बहन होलिका यानि प्रह्लाद की बुआ से सहायता मांगी । इधर होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वे आग में नहीं जलेगी । प्रह्लाद को जान से मारने का बस एक यही तरीका हिरण्यकश्यप को सूझा । उसके निर्देशानुसार लकड़ियों का ढेर लगाकर होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर उस ढेर पर बैठ गई । अग्नि प्रज्वलित हुई और लकड़ियों का ढेर धू-धू कर चिता की तरह जलने लगा । आश्चर्यजनक परिणाम सामने आया कि वरदान प्राप्त होलिका तो उसमें जलकर भस्म हो गई पर बालक प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ । ऐसी मान्यता है कि असत्य और अन्याय के ऊपर सत्य और न्याय की इस विजय के उपलक्ष्य में होली या होलिका का पर्व मनाया जाता है ।
होलिका दहन ही इस पर्व की मुख्य धटना है जिसकी तैयारी बहुत पहले से होने लगती है ।यह रंग उड़ाने के एक दिन पहले ऐतिहासिक रुप में मनाई जाती है ।इसका जुड़ाव प्रकृति से सीधा-सीधा किसानों द्वारा फसलों के पकने पर मनाये जाने वाले उत्सव से जुड़ा है ।सर्दियों की ठिठुरन के बाद में राहत भरी गर्मास में हर्ष के साथ मनाई जाती है ।इस समय बसंत की शोभा भी अपने चरमोत्कर्ष पर होती है और चारों और प्रकृति की सुषमा देखने लायक होती है ।बौरे हुए आम के बगीचों में कूकती हुई कोकिला का स्वर ,भौरों की गुंजार,आम की मंजरियों की मादक
सुगंध होली के आगमन का संकेत देती है ।खेतों में पककर खड़ी हुई गंहूं-जो,चना,मटर,तिलहन ,अरहर की फसलें अपने सुनहरे रंग से कृषकों के गालों पर गुलाल बन चमकने लगती है ।होली का श्रीगणेश डंडा गाड़ने से किया जाता है और यह बसंत पंचमी या शिवरात्रि के दिन गाड़ा जाना निश्चित होता है ।गांव गांव में हर क्षैत्र की अपनी होली अलग सजाई जाती है ।जिसका स्थान पूर्व निश्चित होता है ।गली मौहल्ले के लड़के इसे सजाने का कार्य काफी दिनों पहले से ही करने लगते है, इसमें एक डंडे के चारों और लकड़ियों का ढेर बनाकर उसे ही होली का प्रतिरुप माना जाता है ,जिसमें डंडा तो भक्त प्रहलाद व लकड़ियों का ढेर उसकी बुआ होलिका के रुप में माना जाता है ।इसमें होली जलते समय डंडे को बीच में से ही निकालकर पानी के किसी कुएं या स्त्रोत में डालने की प्रथा भक्त प्रहलाद को जलने से बचाने के रुप में चली आरही है । परन्तु आज आधुनिक दौर में होलिका का स्वरुप कलात्मक होता जा रहा है ।देश में हुई ज्वलंत घटनाओं जैसे कारगिल एवं अच्छाई की बुराई पर जीत की घटनाओं को आदि को जमीन पर रंगों से चित्रित कर कला का नमूना देने के साथ साथ लोगों के जहन में पाप व अन्याय के विरुद्ध लड़ने को प्रोत्साहित कर उन्हें जागरुक बनाने का प्रयास किया जाता है ।कई चित्रकार देवताओं की तस्वीर बनाते हैं तो कुछ नवीन आकर्षक ,आधुनिक झाॅंकी बिजली से साज सज्जा द्वारा बनाते हैं ।दूर दूर से लोग इन झाॅंकियों को देखने आते हैं ।हर धार्मिक घटना जो पाप के अन्त से जुड़ी हो जैसे रावण दहन में रावण को लोग कंकड़ मारते हैं उसी प्रकार होलिका को भी लोग बुरी दृष्टि से देखते हैं ।ऊचीं से ऊचीं होली बनाई जाती है। इसमें एक दूसरे की होड़ भी होती है । होली जलने से पहले खूब सजायी जाती है उसकी कलात्मकता पर प्रतियोगिताएं भी होती हैजिसकी होली सबसे अच्छी होती है उसे पुरुस्कृत किया जाता है ।
होली को सजाने में काफी खर्च़ आता है जिसे गली मौहल्ले के लोगों से ही चंदा लेकर वहन किया जाता है । इस बहाने होली में सभी लोग शामिल भी हो जाते हैं । पंचाग द्वारा पंडित होली दहन का मुर्हुत भी निश्चित कर देते हैं । मृत होलिका की चिता पर हर गांव-घर की प्रथा के अनुसार स्त्रियां कुछ न कुछ डाल जाती हैं - इस प्रार्थना के साथ कि होलिका के साथ उनके बाल बच्चों की आपदाएं भी जल जाएं । जलती हुई होलिका में जौ या गेंहूं के दाने सहित डंठल फेंकना चाहिए और तीन बार उसकी परिक्रमा लगानी चाहिए । होलिका के जलने को संवत जलना भी कहते हैं - अर्थात् होलिका दाह एक संवत की समाप्ति की सूचना देता है और दूसरे के आगमन की । होलिका दाह का समय निश्चित होता है अतः आसपास की अनेक होलिकाओं के एकसाथ जलने के कारण सारा आकाश प्रकाशित हो जाता है । सभी लोगों का मुख्य आकर्षण होलिका की सबसे ऊंची लपट होती है ।इस अवसर पर फाग-चैताल गाया जाता है और होलिका दाह का प्रसाद बाटते हैं
रंग खेलने का दिन चैत्र मास की प्रतिपदा यानि होलिका दहन के अगले दिन होता है इसे धूलण्डी कहा जाता है ।वैसे तो पूरा फाल्गुन का महीना होली का महीना मानते हैं ।इस पूरे महीने जगह -2 रंग खेलते और गीत गाते लोगों को देखा जा सकता है ।ऐसे में ढोलक ,डफ, और मंजीरे की सम्मिलित ध्वनि गीतों के रस से भीगी रंगों से सराबोर टोलियां इस रंगीन वातावरण में चार चांद लगा देती हैं ।
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होली की ढेरो बधाई एवं शुभकामनाएं ...
ReplyDeleteहोली आयी है सखे!, करो रंग बौछार.
ReplyDeleteलगवा-लगा गुलाल लो, लाल-लाल हों गाल.
लाल-लाल हों गाल. भाल हो तिलकित-शोभित.
तुम जिस पर हो, वह भी हो नित, तुम पर मोहित.
कहे 'सलिल' कविराय, प्रेम की पहुनाई है.
गाओ फाग-कबीर सखे! होली आयी है.
holi mubarak ho!
ReplyDeleteहोली की अच्छी जानकारी । हाल ही में मैने टीवी पर नई जानकारी पाई कि होलिका के पास एक चुनरी थी जो आग से बचाव करती थी (फायर प्रूफ)
ReplyDeleteतो बूआ का ह्रदय ऐन मौके पर द्रवित हो गया और उन्होने वह चुनरी प्रल्हाद को उढा दी और स्वयं जल गई . ज्यादा संचुक्तिक लगती है न ये कथा ?
pl read संयुक्तिक
ReplyDeleteब्लाग संसार में आपका स्वागत है। लेखन में निरंतरता बनाये रखकर हिन्दी भाषा के विकास में अपना योगदान दें।
ReplyDeleteनये रचनात्मक ब्लाग शब्दकार को shabdkar@gmail.com पर रचनायें भेज सहयोग करें।
रायटोक्रेट कुमारेन्द्र
होली के बारे में बहुत उपयोगी जानकारियां दी है आपने. शुभकामनायें.
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